प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत विषय में जानकारी मुख्यतः निम्नलिखित स्रोतों से प्राप्त होती है- 1. पुरातात्विक स्रोत 2. साहित्यक स्रोत 3. विदेशियों का विवरण

पुरातात्विक स्रोत

प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्रोत सबसे अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। इसके अन्तर्गत खुदाई से निकली सामग्री, अभिलेख, सिक्के, भवन, मूर्ति, चित्रकला आदि आते हैं।

पुरातात्विक उत्खनन दो प्रकार से होता है- क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर । क्षैतिज उत्खनन से किसी सभ्यता के सम्पूर्ण स्वरूप के बारे में जानकारी प्राप्त होती है जबकि ऊर्ध्वाधर उत्खनन से किसी संस्कृति का काल मापन किया जाता है।

रेडियो कार्बन डेटिंग तकनीक का प्रयोग – उत्खनन से प्राप्त हुई वस्तु का आयु ज्ञात करने के लिए किया जाता है।

अभिलेख

  • पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख है। अभिलेख पाषाण शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं पर उत्खनित है तथा अभिलेखों के अध्ययन को ‘एपीग्राफी’ कहते हैं।
  • सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया के (1400 ई. पू.) ‘बोगज कोई’ अभिलेख नामक स्थान से मिले। इसमें इन्द्र, मित्र, वरूण और नासत्य देवताओं के नाम मिलते हैं। जबकि भारत में सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के है जो 300 ई.पू. के लगभग है।
  • भारतीय पुरातत्व विभाग का जनक ‘सर अलेक्जेण्डर कनिंघम’ को कहा जाता है। तथा भारतवर्ष का सर्वप्रथम उल्लेख हाथीगुम्फा अभिलेख में मिलता है।
  • यवन राजदूत हेलिओडोरस का बेसनगर (विदिशा) से गरूड़ स्तम्भ लेख प्राप्त होता है जिसमें मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण मिलता है। ‘दुर्भिक्ष’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख सोहगौरा अभिलेख में मिलता है। एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त वराह भगवान पर हूणराज तोरमाण का लेख अंकित है तथा सती प्रथा का पहला लिखित साक्ष्य मिलता है।
  • रेशम बुनकर की श्रेणियों की जानकारी मंदसौर अभिलेख से प्राप्त होती है।
  • डॉ. डी.आर. भण्डारकर ने अभिलेखों के अध्ययन के आधार पर मौर्य शासक अशोक का इतिहास लिख दिया।

महत्वपूर्ण अभिलेख

अभिलेखशासक एवं अभिलेख की विशेषताएँ
जूनागढ़ (गिरनार अभिलेख)रुद्रदामन (सुदर्शन झील के बारे में जानकारी)
हाथी गुम्फा अभिलेख (तिथि रहित अभिलेख)कलिंग राज खारवेल
नासिक अभिलेखगौतमी बलश्री (गौतमी पुत्र सातकर्णि तथा सातवाहनों की उपलब्धियाँ)
ग्वालियर अभिलेखप्रतिहार नरेश भोज (गुर्जर प्रतिहार वंश के इतिहास के बारे में जानकारी)
प्रयाग स्तम्भ अभिलेखसमुद्रगुप्त (इनकी दिग्विज़यों की जानकारी)
देवपाड़ा अभिलेखबंगाल शासक विजयसेन
बालाघाट एवं कार्ले अभिलेखसातवाहनों की उपलब्धियाँ
ऐहोल अभिलेखपुलकेशिन द्वितीय
भितरी एवं जूनागढ़ अभिलेखस्कन्दगुप्त (हूणों पर विजय का विवरण)
मन्दसौर अभिलेखमालवा नरेश यशोवर्मन (रेशम बुनकर की श्रेणियों की जानकारी)
भरहुत अभिलेखसुंगनरेण शब्द खुदे होने से शुंगों द्वारा निर्मित
अयोध्या अभिलेखशुंगों की उपलब्धियाँ
एरण अभिलेखभानुगुप्त (सती प्रथा का पहला लिखित साक्ष्य)
बांसखेड़ा और मधुबल अभिलेखहर्षवर्द्धन की उपलब्धियों पर प्रकाश

सिक्के

  • सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहा जाता है।
  • भारत के प्रारम्भिक/प्राचीनतम सिक्कों को आहत सिक्के (पंचमार्क सिक्के) कहा जाता था, इसी को साहित्य में ‘कार्षापण’ कहा जाता है।
  • इन सिक्कों व मुद्राओं पर कोई लेख नहीं होता था, केवल उन पर विभिन्न आकृतियाँ (मछली, हाथी, पेड़ आदि।) विद्यमान होती थीं। पुराने सिक्के ताँबा, चाँदी, सोना और सीसा धातु के बनते थे।
  • इन पंचमार्क सिक्कों को सर्वप्रथम 1800 ई. में कोयम्बटूर (तमिलनाडु) में कर्नल कोल्डवेल द्वारा प्राप्त किया गया था।
  • भारत में सर्वप्रथम तिथि युक्त या लेख युक्त सिक्के हिन्द-यूनानी (हिन्द-यवन) शासकों द्वारा जारी किए गये थे।
  • उत्तर भारतीय मंदिरों की कला शैली ‘नागर शैली’ कहलाती है व दक्षिण भारतीय मंदिरों की कला शैली ‘द्रविड़ शैली’ कहलाती है। जबकि दक्षिणायन के वे मंदिर जिनमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का प्रयोग हुआ है, वे ‘बेसर शैली’ के मंदिर कहलाते हैं।
  • प्रारंभिक सिक्कों में प्रतीकों का प्रयोग नहीं किया जाता था। बाद में राजाओं या जारीकर्ता के नाम (गिल्ड/व्यापारी), देवताओं या तिथियों का उल्लेख सिक्कों पर किया जाने लगा था। ये सिक्के कालानुक्रम के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास के निर्माण में सहायक हैं।
  • कुषाण काल, गुप्तकाल और गुप्तोत्तर काल में जो मूर्त्तियाँ निर्मित की गयी, जन-साधारण की धार्मिक आस्थाओं और मूर्तिकला का ज्ञान मिलता है।
  • भरहूत, बोधगया, साँची और अमरावती की मूर्तिकला में जन-सामान्य के जीवन की यथार्थ झाँकी मिलती हैं।
  • अजन्ता गुफा में उत्कीर्ण ‘माता और शिशु’ तथा ‘मरणासन्न राजकुमारी’ जैसे चित्रों की शाश्वतता सर्वकालिक है, जिससे गुप्तकालीन कलात्मक और तत्कालीन जीवन की झलक मिलती है।

साहित्यक स्रोत

वैदिक साहित्य

इसके अंतर्गत वेद तथा उससे संबंधित ग्रंथ, पुराण, महाकाव्य, स्मृति आदि हैं। भारत के सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘वेद’ का शाब्दिक अर्थ ‘ज्ञान’ है। श्रवण परम्परा में सुरक्षित होने के कारण इसे ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। वेदों के संकलनकर्ता “महर्षि कृष्णा द्वैपायन वेद व्यास” को माना जाता हैं, वेद कुल चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद ।

ऋग्वेद

  • ब्राह्मण साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है। ऋग्वेद में ‘ऋक’ का अर्थ ‘छन्दों तथा चरणों से मुक्त यंत्र’ होता है।
  • ऋचाओं के क्रमबद्ध ज्ञान के संग्रह को ऋग्वेद कहा जाता है। इसमें 10 मंडल, 1028 सूक्त एवं 10,462 ऋचायें हैं। वेद के ऋचाओं को पढ़ने वाले ऋषि को ‘होतृ’ कहते हैं।
  • विश्वामित्र द्वारा रचित ऋग्वेद के तीसरे मंडल में सूर्य देवता ‘सावित्री’ को समर्पित प्रसिद्ध गायत्री मंत्र हैं। इसके 9वें मंडल में ‘सोम देवता’ का उल्लेख है।

यजुर्वेद

  • यजु का अर्थ है ‘यज्ञ’। यजुर्वेद में यज्ञों के नियमों एवं विधि-विधानों का संकलन मिलता हैं।
  • वैदिक मंत्रों के संग्रह यजुर्वेद में बताए गए हैं यह वैदिक अनुष्ठान से सम्बन्धित है।
  • यजुर्वेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाला पुरोहित ‘अध्वर्यु’ कहलाता है।
  • एक ऐसा वेद है जो गद्य व पद्य दोनों शैली में है।
  • यजुर्वेद कर्म काण्ड प्रधान है।
  • इसमे बलिदान विधि का भी वर्णन है ।

सामवेद

  • साम का शाब्दिक अर्थ है ‘ज्ञान’ या ‘संगीत’।
  • इसमें मुख्यतः यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मंत्रों (ऋचाओं) का संकलन हैं।
  • इसके मंत्रों को गाने वाला ‘उद्‌गाता’ कहलाता है। इसे भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।
  • इसे भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है ।
  • इसमे 1810 सूक्त है जो ऋग्वेद से लिए गए हैं।

अथर्ववेद

  • यह अथर्वा नामक ऋषि द्वारा रचित है । इन्हीं के नाम पर इसे अथर्ववेद कहा गया तथा इसके दूसरे द्रष्टा रचियता आंगिरस ऋषि थे, इसे ‘अथर्वांगिरस वेद’ भी कहा जाता है।
  • अथर्वा ऋषि द्वारा रचित इस वेद में कुल 731 मंत्र तथा लगभग 6000 पद्य हैं ।
  • इसे भैषज वेद भी कहा जाता है।
  • इस वेद में सर्वप्रथम सती प्रथा का उल्लेख किया गया है।
  • इसकी रचना सबसे अन्त में हुई, इसमें कुल 20 कॉण्ड, 731 सूक्त एवं 5987 मंत्र हैं, इसमें लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से उधृत हैं।
  • यह भौतिकवादी वेद हैं, इसमें सामान्य मनुष्यों के विचारों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता हैं। इसमें जादू, टोने, टोटके का उल्लेख किया गया है।
  • इसमें चिकित्सा पद्धतियों व औषधियों का उल्लेख किया गया है।
  • इसका उपवेद ‘शिल्पवेद’ है।
  • इस वेद में आर्य एवं अनार्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है।
  • अथर्ववेद में ‘परीक्षित’ को कुरूओं का राजा कहा गया है। इसमें सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है।
  • पृथ्वीसूक्त अथर्ववेद का प्रतिनिधि सूक्त माना जाता है।

ब्राह्मण साहित्य

  • इनकी रचना वैदिक संहिताओं की व्याख्या करने हेतु सरल गद्य में की गई। ब्रह्म का अर्थ ‘यज्ञ’ हैं, अतः यज्ञ के विषयों का प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ‘ब्राह्मण’ कहलाते हैं। ऐतरेय में राज्याभिषेक के नियम एवं प्राचीन राजाओं के नाम दिये गये हैं।
  • शतपथ ब्राह्मण में गान्धार, शंल्य, कैकेय, कुरू, पाँचाल, कोशल, विदेह आदि राजाओं के नाम का उल्लेख हैं।

ब्राह्मण ग्रंथ

वेदउपवेदब्राह्मण ग्रंथ
ऋग्वेदआयुर्वेदऐतरेय एवं कौषीतिकी ब्राह्मण
यजुर्वेदधनुर्वेदशतपथ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण
सामवेदगन्धर्ववेदषडविंश ब्राह्मण इसे ताण्ड्य ब्राह्मण भी कहते हैं।
अथर्ववेदशिल्पवेदगोपथ ब्राह्मण

आरण्यक साहित्य

  • इनकी रंचना जंगलों (अरण्य) में पढ़ाये जाने के कारण इन्हें आरण्यक कहा जाता है। यह ब्राह्मण ग्रंथ का अंतिम भाग हैं, जिसमें दार्शनिक एवं रहस्यात्मक ज्ञान के विषयों का वर्णन किया गया है।
  • आरण्यक कुल सात हैं- (1) ऐतरेय (2) शांखायन (3) तैत्तिरीय (4) मैत्रायणी (5) माध्यन्दिन (6) तत्वकार (7) छान्दोग्य ।

उपनिषद – (108)

  • उपनिषद् का शाब्दिक अर्थ है- उप-समीप, नि-निष्ठापूर्वक, सद्-बैठना। अर्थात् (दार्शनिक व रहस्यात्मक ज्ञान के लिए) गुरू के समीप निष्ठापूर्वक बैठना। इसे ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है। क्योंकि यह वेदों का अन्तिम भाग है। इनका सम्बन्ध दर्शनशास्त्र से है। उपनिषद् मुख्यतः ज्ञानमार्गी रचनायें हैं।
  • उपनिषदों की कुल संख्या 108 मानी गई हैं किन्तु प्रमाणिक उपनिषद् 12 है।
  • 12 उपनिषद्:- (1) ईश (2) केन (3) कठ (4) प्रश्न (5) मुण्डक (6) माण्डूक्य (7) तैत्तिरीय (8) ऐतरेय (9) छान्दोग्य (10) श्वेताश्वतर (11) कौषीतकी (12) वृहदारण्यक
  • शंकराचार्य ने आरम्भिक दस उपनिषदों का भाष्य लिखा है।
  • कठोपनिषद में यम व नचिकेता का संवाद है।
  • छान्दोग्य उपनिषद् में बौद्ध धर्म का पंचशील सिद्धान्त व श्रीकृष्ण का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है।
  • जाबालोपनिषद् में चारों आश्रमों व्यवस्था का उल्लेख मिलता है।
  • ऐतरेय उपनिषद् में बौद्ध धर्म का आष्टांगिक मार्ग का उल्लेख है।
  • वृहदारण्यक उपनिषद् में अहम-ब्रह्मास्मि, पुनर्जन्म का सिद्धान्त एवं याज्ञवलक्य गार्गी संवाद का वर्णन है।
  • भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ ‘मुण्डकोपनिषद’ से लिया गया है।

वेदांग

वैदिक साहित्य को समझने हेतु इसकी रचना की गई है। इनकी संख्या छः है।

  1. शिक्षा– वैदिक स्वरों के शुद्ध उच्चारण हेतु शिक्षा का निर्माण हुआ।
  2. कल्प– ये ऐसे कल्प (सूत्र) होते हैं जिनमें विधि एवं नियम का उल्लेख है।
  3. व्याकरण– इसमें नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग, समासों एवं सन्धि आदि के नियम बताए गए हैं।
  4. निरूक्त– शब्दों की उत्पत्ति का शास्त्र है, यह एक प्रकार का भाषा-विज्ञान है।
  5. छन्द– वैदिक मंत्र प्रायः छंद बद्ध है। छंद शास्त्र पर पि‌ङ्गलमुनि का ग्रंथ ‘छन्द सूत्र’ उपलब्ध है।
  6. ज्योतिष– इसमें ज्योतिषशास्त्र के विकास को दिखाया गया है। ज्योतिष में कुल 44 श्लोक हैं, सबसे प्राचीनतम आचार्य मगध मुनि है।

सूत्र

वैदिक साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सूत्र साहित्य का प्रणयन किया गया। ऐसे सूत्र जिनमें विधि और नियमों का प्रतिपादन किया जाता हैं कल्पसूत्र कहलाते हैं, कल्पसूत्रों के तीन भाग हैं।

  • श्रोत सूत्र– यज्ञ सम्बन्धी नियम
  • गृह्य सूत्र– लौकिक एवं पारलौकिक कर्त्तव्यों का विवेचन
  • धर्म सूत्र– धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक कर्त्तव्यों का विवेचन ।

प्रमुख सूत्रकारों में गौतम बौद्धायन, आपस्तम्भ, वशिष्ठ आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। गौतम धर्म सूत्र सबसे प्राचीन है।

पुराण

  • पुराण का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन आख्यान’ होता है। पुराणों की संख्या 18 हैं।
  • पुराणों की रचना लोमहर्ष एवं उग्रश्रवा ने की। पाँचवीं से चौथी शताब्दी ई.पू. में पुराण ग्रंथ अस्तित्व में आ चुके थे।
  • अमरकोश में पुराणों के पाँच विषय बताए गये हैं-मार्कण्डेय, ब्रह्म, वायु, विष्णु, भागवत और मत्स्य सबसे प्राचीन पुराण है। मत्स्य, वायु, विष्णु भागवत, ब्रह्म पुराण में ही राजाओं की वंशावली पायी जाती है।
  • सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से ‘अग्निपुराण’ का काफी महत्त्व है, जिसमें राजतंत्र के साथ-साथ कृषि संबंधी विवरण भी दिया गया है।
  • सर्वप्रथम ‘पार्जीटर’ ने पुराणों के ऐतिहासिक महत्त्व को पढ़ा।
  • पुराण संबंधित वंश-मत्स्य, शुंग एवं सातवाहन वंश, विष्णु, मौर्य वंश, वायु, गुप्त वंश

स्मृति साहित्य

  • मनु स्मृति– प्राचीनतम स्मृति, शुंग व सातवाहन वंश की जानकारी जर्मन दार्शनिक ‘नीत्शे’ कहता है- ‘बाइबिल को जला दो, मनुस्मृति को अपनाओ।’
  • टीकाकार– भारूचि, मेधातिथि, गोविंदराज, कुल्लूक भट्ट ।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति – टीकाकार- विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, अपरार्क।
  • नारद स्मृति– इसमें “दासों की मुक्ति” का उल्लेख है।
  • कात्यायन– इसमें ‘आर्थिक गतिविधियों का उल्लेख है।

बौद्ध साहित्य

  • सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक है। यह पालि भाषा में रचित है।
  • त्रिपिटक -1. विनय पिटक, 2. सुत्त पिटक, 3. अभिधम्म पिटक
  • बुद्ध की शिक्षाओं को संकलित कर इन्हें तीन भागों में बाँटा गया। इन त्रिपिटकों की रचना बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के बाद हुई। बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाओं को ‘जातक’ कहा जाता है। निकायों में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त व कहानियों का संग्रह है।
  • हीनयान का प्रमुख ग्रंथ ‘कथावस्तु’ हैं, जिसमें महात्मा बुद्ध का जीवन-चरित्र अनेक कथानकों के साथ उल्लेखित हैं।

जैन साहित्य

  • जैन साहित्य को आगम (सिद्धांत) कहा जाता है। यह प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। जैन आगमों में सबसे महत्त्वपूर्ण बारह (12) अंग हैं। जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र एवं नन्दी सूत्रं की गणना की जाती है।
  • जैनधर्म का प्रारंभिक इतिहास ‘कल्पसूत्र’ से ज्ञात होता है जिसकी रचना ‘भदबाहु’ ने की थी। आचारांग सूत्र में जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का उल्लेख हैं।
  • भगवती सूत्र में महावीर के जीवन की शैलियों पर प्रकाश पड़ता है। जैन ग्रंथों में सबसे महत्त्वपूर्ण हेमचन्द्र कृत ‘परिशिष्ट परवन’ है, जिसकी रचना 12वीं शताब्दी में हुई।

विदेशी यात्रियों के विवरण

विदेशी यात्रियों से मिलने वाली प्रमुख जानकारी– भारत में आने वाले यूनानी, रोमन, अरबी और चीनी विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास को जानने में सहायता मिलती है ।

यूनानी-रोमन लेखक

भारतीय स्रोत से हमें सिकन्दर के आक्रमण (325) ई.पू.) की कोई जानकारी नहीं मिलती, इसीलिए हमें यूनानी स्त्रोतों पर ही आश्रित रहना पड़ता है।

सिकंदर के समकालीन एक भारतीय राजा ‘सेण्ड्रोकोट्स’ का नाम मिलता है जो यूनानी लेखकों ‘स्ट्रेबो’ व ‘जस्टिन’ ने किया है।

एरियन तथा प्लूटॉर्क ने उसे ‘एण्ड्रोकोट्स’ तथा फिलार्कस ने ‘सेण्ड्रोकोट्स’ के नाम से उल्लेख किया।

स्ट्रेबो, डियोडोरस, प्लिनी और एरियन नामक यूनानी विद्वान ‘क्लासिकल’ लेखक के रूप में जाने जाते हैं।

  1. टेसियस– यह ईरानी राजवैद्य था।
  2. हेरोडोटस– इसे “इतिहास का पिता” कहा जाता है, अपनी पुस्तक हिस्टोरिका 5वीं शताब्दी ई.पू. में लिखी (भारत-फारस संबंध वर्णन)
  3. निर्याकस, आनेसिक्रिटस, अरिस्टोबुल्स– ये सभी लेखक सिंकदर के समकालीन व इनका विवरण अधिक प्रमाणिक व विश्वसनीय था।
  4. टॉल्मी– दूसरी शताब्दी में ‘भारत का भूगोल’ नामक पुस्तक लिखी। टॉल्मी की ‘ज्योग्राफी’ व ‘पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी’ नामक पुस्तक लिखी। (भारतीय बंदरगाहों व व्यापारिक वस्तुओं का वर्णन है।).
  5. डायोनिसियस– मिस्र नरेश टालेमी फिलाडिल्फस के राजदूत के रूप में अशोक के दरबार में आया था।
  6. डाइमेकस – सीरियाई राजा ‘एन्टिओकस I’ के राजदूत के रूप में बिन्दुसार के दरबार में रहा था।
  7. मेगस्थनीज– सेल्यूकस निकेटर के राजदूत के रूप में 14 वर्षों तक चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। इसकी पुस्तक ‘इण्डिका’ से मौर्यकालीन समाज व संस्कृति के बारे में बताया गया है।
  8. प्लिनी– इसकी पुस्तक ‘नेचुरल हिस्टोरिका’ (ईसा की प्रथम सदी) यह लैटिन भाषा में हैं, जिसमें भारत व इटली के मध्य होने वाले व्यापार, वनस्पतियों व खनिजों का वर्णन है।

चीनी (लेखक) यात्रियों के विवरण

भारत में आने वाले अधिकांश चीनी यात्री बौद्ध मतानुयायी थे। इनमें प्रमुख हैं-

  1. फाह्यान– यह गुप्त नरेश चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.) के दरबार में भारत आया। 399 से 414 ई. तक उसने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। उसने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति का विवरण दिया।
  2. ह्वेनसांग – सातवीं सदी में हर्ष के शासन काल में भारत आया, वह भारत में 16 वर्षों तक रहा। 6 वर्ष तक उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसका यात्रा विवरण ‘सी-यू-की’ नाम से प्रसिद्ध हैं। जिसमें 138 देशों का विवरण है। जो हर्षकालीन भारतीय स्थिति जानने का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।
  3. ह्वी ली– इसके द्वारा लिखित ह्वेनसांग की जीवनी से भी हर्षकालीन इतिहास का विवरण ज्ञात होता हैं।
  4. मा त्वान लिन– हर्ष के पूर्वी अभियान का विवरण।
  5. इत्सिंग– सातवीं शताब्दी के अन्त में भारत आने वाले इस चीनी यात्री ने नालंदा तथा विक्रमशिला विश्वविद्यालय और अपने समय की भारत स्थिति का वर्णन किया है।
  6. सुंग युन– यह 518 ई. में भारत आया। अपने 3 वर्षों की यात्रा में बौद्ध धर्म की प्राप्तियाँ एकत्रित की।

अरबी लेखक

  1. अलबरूनी– ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी के साथ भारत आया। अलबरूनी अपनी पुस्तक ‘तहकीक-ए-हिन्दी’ (किताब-उल-हिन्द अर्थात् भारत की खोज) में राजपूतकालीन समाज, धर्म, रीति-रिवाज पर सुंदर प्रकाश डाला। अलबरूनी महमूद द्वारा बंदी बनाया गया था, बाद में उसकी योग्यता से प्रभावित होकर उसे ‘राज ज्योतिषि’ बना दिया गया।
  2. सुलेमान – 9वीं शताब्दी में भारत आया और तत्कालीन प्रतिहार शासकों और पाल शासकों के विषय में लिखा।
  3. अलमसूदी– 10वीं सदी में बगदादी यात्री अलमसूदी भारत में आया। यह राष्ट्रकूट व प्रतिहारे शासकों की जानकारी देता है।
  4. इब्नबतूता– इसने अपना यात्रा वृत्तांत अरबी भाषा में लिखा, जिसे ‘रेहला’ कहा जाता है। 14वीं शताब्दी में (1333 ई. में) दिल्ली पहुँचने पर इससे प्रभावित होकर सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी (न्यायाधीश) नियुक्त किया।

अन्य लेखक-

  1. तारानाथ – एक तिब्बती लेखक हैं, इसने ‘कंग्युर’ तथा ‘तंग्युर’ नामक ग्रंथ की रचना की। इनसे भारतीय इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है।
  2. मार्कोपोलो – यह 13वीं शताब्दी के अन्त में पाण्ड्य देश की यात्रा पर आया था, इसका विवरण पाण्ड्य इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है।

प्राचीन भारत

परिचय – अतीत काल की घटनाओं की स्थिति की जानकारी देने वाले शास्त्र को ही हम ‘इतिहास’ कहते हैं तथा प्राचीन भारतीय इतिहास की विशद सामग्री को सार्वजन एवं समझने योग्य बनाने के लिए इतिहासकारों ने इसे तीन भागों में बाँटा हैं- 1. प्रागैतिहासिक काल, 2. आद्य-ऐतिहासिक काल, 2. ऐतिहासिक काल

  1. प्रागैतिहासिक काल – जिस काल का मानव किसी प्रकार की लिपि अथवा लेखन कला से परिचित नहीं था। मानव उत्पत्ति से लेकर लगभग 3000ई.पू. के बीच का समय इसके अन्तर्गत आता है। पाषाण काल एवं ताम्र पाषाण काल का अध्ययन इसी के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. आद्यैतिहासिक काल – जिस काल का मानव किसी न किसी प्रकार की लिपि से परिचित था लेकिन वह लिपि अभी तक पढ़ी न गई हो। हड़प्पा सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता का अध्ययन इसी के अन्तर्गत किया जाता है।
  3. ऐतिहासिक काल – जिस काल का मानव किसी न किसी प्रकार की लिपि से परिचित था और वह लिपि पढ़ी जा चुकी हो अर्थात् मानव के जिन क्रिया-कलापों का हमें लिखित विवरण प्राप्त होता है और वह विवरण पढ़ा जा चुका हो उसे हम इतिहास कहते हैं। 5 वीं शताब्दी ई. पू. से लेकर वर्तमान तक का अध्ययन इसी के अन्तर्गत किया जाता है।

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