परिचय
भारत का संवैधानिक विकास 1600 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के पश्चात शनैः शनैः प्रारंभ हुआ, किन्तु भारतीय विधानों में परिवर्तन एवं सक्रियता की दर में वृद्धि सन् 1757 ई. (प्लासी युद्ध) एवं 1764 (बक्सर का युद्ध) के पश्चात देखने को मिलती है। 1965 में हुई इलाहाबाद की संधि के तहत ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी ने विभिन्न अधिकार प्राप्त किए जिसके तहत उन्हें बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी अधिकार प्राप्त हुए और यहीं से ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी का ब्रिटिश हुकूमत में परिवर्तन होना प्रारंभ हुआ जिसको हम ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संदर्भ में देख सकते है।
1858 के विद्रोह के पश्चात सत्ता का हस्तांतरण ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हुआ जिसको हम विभिन्न चरणों में देखेंगे। यहीं कारण रहा कि भारतीय संविधान में हम विभिन्न विशेषताओं को ब्रिटिश पद्धति से प्रेरित मानते है। ब्रिटिशों द्वारा कानूनों का निर्माण भारत में शासन को सुव्यवस्थित करने के लिए अवश्य किया गया किन्तु इसके द्वारा विधि का शासन स्थापित हुआ और विभिन्न चरणों में अधिकारों की प्राप्ति हुई जो कि आजादी पश्चात भारतीय संविधान का आधार बना।
संवैधानिक विकास के चरण
- ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन संवैधानिक विकास
- ब्रिटिश ताज के अधीन संवैधानिक विकास
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन संवैधानिक विकास
रेग्युलेटिंग एक्ट (Regulating Act) (1773) :
ब्रिटिश संसद द्वारा पहली बार कम्पनी की गतिविधियों नियंत्रित करने का प्रयास किया गया जिसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं
(i) इस अधिनियम में प्रावधान किया गया कि बंगाल का गवर्नर अब से बंगाल का गवर्नर जनरल पदनाम से जाना जाएगा।
Note: बंगाल का पहला गवर्नर जनरल “वारेन हेस्टिंग्स” हुआ।
(ii) रेग्यूलेटिंग एक्ट के तहत बंगाल के गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक चार सदस्यों वाली कार्यकारी परिषद का गठन किया गया।
(iii) बम्बई एवं मद्रास प्रेसीडेसियों के गवर्नरों को बंगाल गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया।
(iv) रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का प्रावधान लाया गया, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश एवं तीन अन्य न्यायाधीशों का प्रावधान था।
Note: सम्राट जॉर्ज द्वितीय ने 26 जुलाई, 1774 को चार्टर जारी कर कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई। वहीं इसके पहले मुख्य न्यायाधीश एलिजा इम्पे थे।
(v) 1773 के अधिनियम से कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंधित कर दिया गया।
(vi) ब्रिटिश सरकार द्वारा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण करने की कोशिश की गई और कंपनी को राजस्व नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया।
Note: कोर्ट ऑफ डॉयरेक्टर का कार्यकाल 1 वर्ष से बढ़कर चार वर्ष कर दिया गया।
संशोधित अधिनियम (Amendment Act) (1781) :
इसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार संबंधी संशोधनों को शामिल किया गया जो कि निम्नलिखित है:
(i) सर्वोच्च न्यायालय को राजस्व वसूली संबंधित मामलों की सुनवाई से वंचित कर दिया गया अर्थात किसानों के राजस्व वसूली संबंधित मामले सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार से बाहर कर दिए गए।
(ii) गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद और कंपनी के सेवकों को भी पदधारण से संबंधित की गई कार्यवाहियों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई नहीं हो सकती की।
(iii) इस अधिनियम के द्वारा कलकत्ता के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्र के अंतर्गत लाया गया।
(iv) न्यायालयों के लिए यह नियम बनाया गया कि हिन्दू समुदाय के मामले उनके निजी कानूनों के द्वारा एवं मुस्लिमों के मामले उनके निजी समुदाय के द्वारा निपटाने का निर्देश।
(v) इस अधिनियम में यह प्रावधान किया गया कि प्रांतीय न्यायालयों की अपील अब सर्वोच्च न्यायालय में न होकर गवर्नर जनरल इन काउंसिल के यहां होनी थी।
(vi) इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल इन काउंसिल को प्रांतीय न्यायालयों के संचालन हेतु नियम विनियमन बनाने का अधिकार दिया गया।
फलतः हम इस अधिनियम में देखते है कि सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों को कम करते हुए कम्पनी के कार्यपालिका पक्ष को मजबूत बनाया गया ताकि औपनिवेशिक हित साधे जा सके।
पिट्स इण्डिया एक्ट (Pit’s India Act) (1784) :
(i) गवर्नर-जनरल-इन-काउंसिल में सदस्यों की संख्या को तीन कर दिया गया।
(ii) इस अधिनियम के द्वारा नियंत्रण बोर्ड की स्थापना का प्रावधान किया गया जिसका नेतृत्व वरिष्ठ कैबिनेट सदस्य करता था जो ईस्ट इंडीज से संबंधित मामलों का अधीक्षण करता था। ence
(iii) इस अधिनियम के द्वारा वाणिज्यिक और राजनीतिक को पृथक करने का प्रयास किया गया। यहां ध्यातव्य है कि इस अधिनियम में निदेशक मंडल को वाणिज्यिक मामलों को एवं राजनैतिक मामलों के प्रबंधन हेतु नियंत्रण बोर्ड को सौंपा गया। नियंत्रण बोर्ड को अधिकृत किया गया कि वह ब्रिटिश नियंत्रण वाले भारत में सभी नागरिक सैन्य एवं राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण एवं नियंत्रण करें।
(iv) अधिनियम के द्वारा मद्रास एवं बम्बई प्रेसीडेंसी के गवर्नर को युद्ध, शांति एवं राजस्व संबंधी मामलों में पूर्णतः गवर्नर (बंगाल) जनरल के अधीन कर दिया गया।
अंततः हम देखते हैं कि 1784 के पिट्स इण्डिया एक्ट के द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नियंत्रण के स्तर पर द्वैध शासन का प्रारंभ देखते है जिसके तहत 1857 के विद्रोह तक कुछ परिवर्तनों के कंपनी द्वारा भारत को प्रशासित किया गया।
1786 का संशोधन अधिनियम :
इस अधिनियम का आगमन लार्ड कार्नवालिस को भारत का गवर्नर जनरल बनाए जाने को लेकर किया गया जिसमें वस्तुतः गवर्नर जनरल के विशेषाधिकारों में बढ़ोतरी करना था-
(i) इस अधिनियम के द्वारा मुख्य सेनापति की शक्तियों को गवर्नर जनरल में समाहित कर दिया गया।
(ii) गवर्नर जनरल किसी विशेष परिस्थिति में परिषद के निर्णयों को नकार सकता था एवं वह अपने निर्णय लागू भी कर सकता था।
चार्टर एक्ट (Charter Act) (1793) :
(i) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विशेषाधिकारों को अगले 20 वर्षों के लिए और आगे बढ़ा दिया।
(ii) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के डायरेक्टरों के लाभांश के 10% तक बढ़ाने की स्वीकृति दे दी गई थी।
(iii) इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल इन काउंसिल की सदस्यों की योग्यता में उनका भारत में 12 वर्षों तक रहने का अनुभव अनिवार्य कर दिया गया।
(iv) नियंत्रण बोर्ड एवं कंपनी के सभी कर्मचारियों का वेतन संबंधी प्रावधान भारतीय कोष देने का कर दिया गया।
(v) इस अधिनियम में यह प्रावधान किया गया कि कंपनी के अधिकारी बिना अनुमति भारतीय भूमि को नहीं छोड़ेंगे अन्यथा इस तरह का कृत्य इस्तीफा माना जाएगा।
(vi) ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार के लिए लाइसेंस जारी कर सकती थी जिसको “विशेषाधिकार” या “देश व्यापार” के नामों से जाना जाता था।
(vii) गवर्नर जनरल को अधिकृत किया गया कि जब वह बंगाल से बाहर हो तो वह अपने परिषद के असैनिक सदस्यों में से किसी एक को उपाध्यक्ष के रूप में नामित करें।
(viii) इस अधिनियम के द्वारा लार्ड कार्नवालिस को दी गई काउंसिल के निर्णयों को न मानने की शक्ति को भविष्य के सभी गवर्नर जनरलों और प्रेसीडेसियों के गवर्नरों तक विस्तारित कर दिया गया।
1813 का चार्टर एक्ट :
1813 का चार्टर एक्ट को पारित करने का मुख्य कारण नेपोलियन द्वारा लागू की गई महाद्वीपीय व्यवस्था के कारण ब्रिटेन को जो हानि हो रही थी जिससे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई और उनको कुछ सुधारवादी उपाय करने के लिए प्रेरित किया जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार के संदर्भ में विभिन्न निर्णय लिया, क्योंकि महाद्वीपीय व्यवस्था के कारण यूरोप के मार के सभी व्यापारियों के लिए बंद हो गए थे इसलिए एक बड़े कुनबे का यह मानना था कि भारत में व्यापार के लिए मालिक हो ले जाएं ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को सीमित किया जाए जिस जड़ के कारण ही 1813 का अधिनियम लाया गया, 1813 अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं
(i) इस अधिनियम के द्वारा कंपनी के ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और भारतीय क्षेत्र में व्यापार के रास्ते सभी ब्रिटेन वालों के लिए खोल दिए गए।
(ii) किंतु इस अधिनियम के द्वारा गया। रा ईस्ट इंडिया कंपनी के चीन एवं चाय के व्यापार के एकाधिकार को जारी रखा * द्वारा ईस्ट इंडिय
(iii) इस अधिनियम के द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में आकर धर्म प्रचार करने की अनुमति दी गई।
(iv) कंपनी के शेयरधारकों के लिए मुनाफे की दर 10.5% सीमित कर दी गई।
(v) इस अधिनियम के द्वारा स्थानीय निकायों को कर लगाने की अनुमति दे दी गई एवं करना अदा करने वाले व्यक्ति के लिए दंड का भी प्रावधान किया गया।
(vi) ईस्ट इंडिया कंपनी के आए से भारतीयों के शिक्षा पर प्रति वर्ष 100000 रु. खर्च करने का प्रावधान किया गया, हालांकि इस राशि के मुहैया कराने में देरी हुई।
(vii) ब्रिटिश व्यापारियों एवं इंजीनियरों को भारत आने की अनुमति इस कानून के द्वारा दे दी गई किंतु इसके लिए आवश्यक था कि वह लाइसेंस नियंत्रण बोर्ड से प्राप्त करें।
1833 का चार्टर अधिनियम :
1813 का चार्टर अधिनियम की अवधि 20 वर्ष पश्चात सन् 1833 को समाप्त हो रही थी इसको देखते हुए एक नवीन अधिनियम लाया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त करना था ऐतिहासिक कारणों से इस अधिनियम को सेंट हेलेना अधिनियम भी कहा जाता है इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
(i) इस अधिनियम के द्वारा कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया एवं कंपनी अब प्रशासनिक प्रशासनिक निकाय के रूप में अपने कार्यों का संचालन करना था जिसकी अवधि 20 वर्ष और बढ़ा दी गई।
(ii) इस अधिनियम के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को अब भारत का गवर्नर जरनल कहा जाने लगा। नोटः इस तरह भारत का पहला गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक हुआ।
(iii) इस कानून के तहत भारत के गवर्नर जनरल को कानून बनाने का भारतीय क्षेत्र में असीमित अधिकार दे दिया गया वहीं मद्रास एवं मुंबई के गवर्नर जनरल को विधायिका संबंधी कार्यों से मुक्त कर दिया गया।
(iv) 1833 के अधिनियम के द्वारा सिविल सेवकों के चयन हेतु प्रतियोगिता परीक्षाओं के आयोजन का का प्रारंभ करने का प्रयास किया गया किंतु बोर्ड आफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण संबंधित प्रावधान को प्रारंभ नहीं किया जा सका।
(v) अब अंग्रेजों को बिना अनुमति पत्र के ही भारत में भूमि खरीदने एवं बसने की अनुमति प्रदान कर दी गई।
(vi) गवर्नर जनरल की परिषद में सदस्यों की संख्या को जो पिट्स इंडिया एक्ट के तहत 4 से घटाकर तीन किया गया था उसको पुनः चार कर दिया गया और चौथे सदस्य को भी सदस्य के रूप में शामिल करना था। नोटः विधि सदस्य के रूप में शामिल होने वाला पहला व्यक्ति लॉर्ड मैकाले था।
(vii) गवर्नर जनरल की परिषद को राजस्व के संदर्भ में संपूर्ण अधिकार प्रदान किए गए एवं गवर्नर जनरल को संपूर्ण देश के लिए एक ही बजट करने को अधिकृत किया गया।
(viii) इस अधिनियम के द्वारा भारत में दास प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया गया। नोटः दास प्रथा का उन्मूलन 1843 में लॉर्ड एलनबरो के समय किया गया। lence
हालांकि 1833 का अधिनियम ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति से प्रेरित था जिसमें अपने बने हुए या निर्मित उत्पादों के लिए बाजार को खोजना एवं कच्चे माल की आपूर्ति ब्रिटिश औद्योगिक क्षेत्र को करना बाकी ब्रिटिश आर्थिक हित साधे जा सके फलता उक्त प्रावधानों के आधार पर हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश 1833 के अधिनियम के द्वारा द्वारा अपने हित साधने में सक्षम हुए किंतु समय समय भारतीय संविधान या विधानों का विकास भी होता जा रहा था।
1853 का चार्टर अधिनियम :
1853 ई. के चार्टर अधिनियम ने कंपनी को, क्राउन के प्रति निष्ठा बनाये रखते हुए, भारत स्थित अपने क्षेत्रों को बनाये रखने और राजस्व के अधिकार प्रदान कर दिए। ये अधिकार पूर्व के चार्टर अधिनियमों के समान किसी निश्चित समयसीमा में बंधे नहीं थे बल्कि यह अधिकार तब तक के लिए प्रदान कर दिए गए जब तक की संसद कुछ नए निर्देश जारी ना करें। ध्यातव्य है कि 1793 से 1853 के बीच ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए विभिन्न चार्टर अधिनियमों की कड़ी में अंतिम अधिनियम था संवैधानिक विकास की दृष्टि से इसका अपना अलग ही महत्व है, 1853 के अधिनियम को अट्ठारह सौ बावन की सेलेक्ट कमेटी के आधार पर बनाया गया था, इसकी विशेषताएं निम्नलिखित है-
(i) इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को विभक्त कर दिया गया इसके तहत परिषद में 6 नवीन पार्षद जिनको विधान पार्षद कहा गया। नवीन पार्षदों का चुनाव मद्रास, मुंबई बंगाल और आगरा की प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था।
(ii) इस तरह गवर्नर जनरल के लिए नवीन विधान परिषद का गठन किया गया इसे भारतीय विधान परिषद कहा गया एवं इसने छोटी संसद की तरह कार्य करना प्रारंभ किया इस तरह भारतीय संविधान या विधान के विकास में पहली पहली बार विधायिका शब्द से परिचित करवाया गया।
(iii) इस अधिनियम के द्वारा सिविल सेवकों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगिता परीक्षा का प्रारंभ किया गया जिसके लिए सन् 1854 में मैकाले समिति का गठन किया गया। वही इसके लिए आयु 18 से 23 वर्ष तक रखी गई अर्थात 23 वर्ष अधिकतम आयु थी किंतु अगर भारतीयों के शैक्षिक व्यवस्था के स्तर को ध्यान में रखते हुए आयु का मूल्यांकन किया जाए तो यह बहुत ही कम थी।
(iv) इस अधिनियम के द्वारा सन 1833 में शामिल किए गए विधान परिषद के चौथे सदस्य के रूप में विधि सदस्य को चूंकि मत देने का अधिकार नहीं दिया गया था इसलिए सन 1853 में उसके लिए यह प्रावधान किया गया कि अब विधि सदस्य मत दे सकता था।
(v) चार्टर एक्ट 1853 के अनुसार बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की संख्या को 24 से घटाकर 18 कर दिया गया जिसमें 6 सदस्यों को सम्राट द्वारा मनोनीत किया जाना था, वही कंपनी में नियुक्तियों के मामले में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के संरक्षण को समाप्त कर दिया गया।
अंत में इस अधिनियम के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को कमजोर किया गया और ताज के के प्रभाव को भारतीय प्रशासन में स्थापित करने का प्रयास किया गया, इस अधिनियम के तहत, गवर्नर जनरल की परिषद की विधायी और कार्यकारी शक्तियाँ अलग हो गईं। 1853 के चार्टर एक्ट ने भारत में संसदीय प्रणाली की शुरुआत को एक महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में चिह्नित किया क्योंकि विधान परिषद कार्यकारी परिषद से स्पष्ट रूप से अलग थी। गवर्नर जनरल को बंगाल के प्रशासनिक कर्तव्यों से मुक्त कर दिया गया था और इसके बजाय भारत सरकार के लिए काम किया था।
ब्रिटिश ताज के अधीन संवैधानिक विकास
भारत सरकार अधिनियम, 1858 :
इस अधिनियम को 1857 में हुए विद्रोह के पश्चात लाया गया जो कि भारत में शासन व्यवस्था में व्याप्त दोषों को समाप्त कर बेहतर शासन प्रदान करना था ताकि भारतीयों व्याप्त शासन प्रदान करना था ताकि भारतीयों व्याप्त असंतोष कम करते हुए ब्रिटिश हितों को साधा जा सके। इस अधिनियम द्वारा भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर क्राउन को दे दिया गया। इस अधिनियम के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री “लॉर्ड डरबोर्ड” थे, एवं महारानी के पद पर विक्टोरिया थीं। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है:
(i) इस अधिनियम के द्वारा शासन का अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से लेकर ब्रिटिश ताज को दे दिया अर्थात अब भारतीय प्रशासन का संचालन प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार द्वारा किया जाना था।
(ii) इस अधिनियम के अनुसार अब गवर्नर जनरल के नाम को बदलकर “वायसराय” कर दिया गया और उसको भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि माना गया।
Note: इस तरह भारत के पहले वायसराय लॉर्ड कैनिंग हुए।
(iii) इसके द्वारा भारत के राज्य सचिव पद को निर्मित किया गया जो कि ब्रिटिश संसद में कैबिनेट सदस्य और संसद के प्रति उत्तरदायी था।
(iv) भारत के राज्य सचिव की सहायता के 15 सदस्यों वाली सलाहकारी परिषद का गठन किया गया जिसका अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया।
(v) यहां ध्यातव्य रहे कि राज्य सचिव की सलाहकारी परिषद एक निगमित निकाय थी जिसके खिलाफ भारत एवं इंग्लैण्ड में मुकदमें का अधिकार था।
(vi) सन् 1784 से प्रारंभ हुई द्वैध शासन पद्धति को समाप्त किया गया जिसके तहत बोर्ड ऑफ डायरेक्टरर्स एवं बोर्ड कंट्रोल को समाप्त कर दिया गया।
(vii) मुगल सम्राट के पद को समाप्त कर दिया गया और भारतीय शासन को प्रत्यक्ष रूप से सम्राट के अधीन कर दिया गया।
Note: सर चार्ल्स वुड बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अंतिम अध्यक्ष तथा भारत के पहले राज्य सचिव बनाए गए थे।
इस तरह इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासन को प्रत्यक्षतः अपने नियंत्रण में ले लिया ताकि भारतीयों में व्याप्त असंतोष के सत्ता परिवर्तन के द्वारा समुचित समाधान निकाला जा सके किन्तु अभी भी इसमें भारतीय प्रतिनिधित्व का आभाव था और यह औपनिवेशिक हितों से ही प्रेरित था किन्तु सत्ता के विकेंद्रीकरण में आगे कुछ बदलाव अवश्य देखने को मिलते है।
भारत परिषद अधिनियम 1861 :
भारत परिषद अधिनियम का निर्माण देश प्रशासन में भारतीयों को शामिल करने के उद्देश्य से बनाया गया था, इस अधिनियम से सरकार की शक्तियों और कार्यकारी व विधायी कार्यों के लिए वायसराय की परिषद में बदलाव किया गया, एवं विभागीय प्रणाली को प्रारंभ करने का प्रयास किया गया। इस अधिनियम की विशेषताएं निम्नलिखित है:
(i) इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों को कानून बनाने की प्रक्रिया में शामिल किया गया। जिसके तहत वायसराय कुछ भारतीयों को परिषद में गैर-सरकारी सदस्य के रूप में शामिल कर सकता था।
Note: लॉर्ड कैनिंग द्वारा तीन भारतीयों परिषद में मनोनीत किया गयाः
- (अ) बनारस के राजा
- (ब) पटियाला के महाराजा
- (स) सर-दिनकर राव
(ii) कानून निर्माण के लिए वायसराय की कार्यकारी परिषद का विस्तार करते हुए परिषद की न्यूनतम संख्या 6 एवं अधिकतम 12 निर्धारित की गई।
(iii) इस अधिनियम के द्वारा आपातकाल परिस्थितियों में वायसराय की अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई जिसकी अवधि 6 माह थी। itted
(iv) वायसराय को प्रांतों में विधान परिषद की स्थापना का तथा लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार मिल गया। जिसके चलते तीन प्रांतों में विधान परिषद की स्थापना की गई:
- (अ) बंगाल 1862
- (ब) उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत 1866
- (स) पंजाब 1867
(v) वायसराय की परिषद में पांचवें सदस्य को विधि विशेषज्ञ के रूप में शामिल किया गया।
(vi) इस अधिनियम में लार्ड कैनिंग द्वारा प्रारंभ की गई पोर्टफोलियों प्रणाली को भी मान्यता दी गई।
Note: पोर्टफोलियों प्रणाली (1859) इसके अंतर्गत वायसराय की परिषद का एक सदस्य, एक या अधिक सरकारी विभागों का प्रभारी बनायी जा सकता था तथा संबंधित व्यक्ति का उस विभाग में काउंसिल की तरफ से अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार था।
फलतः हम देखते हैं कि इस कानून के द्वारा मद्रास एवं बम्बई प्रेसीडेंसियों को पुनः कानून निर्माण संबंधी अधि कार प्रदान कर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की गई, जिसने 1773 से प्रारंभ हुई केंद्रीकरण की प्रक्रिया को उलट दिया वहीं आगे भी हम इस प्रवृत्ति को देख सकते है। किन्तु 1861 के एक्ट में अनेक खामियां थीं जो कि भारतीय आकांक्षाओं की पूर्ति करने असक्षम था, जिसके तहत हम देखते हैं कि गैर-सरकारी सदस्य कोई प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर सकते थे। और इनको न तो प्रश्न पूछने की अनुमति थी और न ही बजट पर बहस की इसलिए इसके माध्यम से भारतीयों को कोई प्रभावी भूमिका नहीं मिली। किन्तु बावजूद इन कमियों के अगले अधिनियम के आने में 30 वर्षों का समय लगा किन्तु इस दौरान घटनाओं का क्रम जारी रहा जिसकी परिणति हम 1892 के अधिनियम के रूप में देखते हैं।
भारत परिषद अधिनियम (1892):
1862 से लेकर के 1892 तक विभिन्न प्रतिरोधों को हम देखते हैं जिसके जिसके चलते भारतीय जनता का असंतोष व्यक्त हुआ इसमें हम इल्बर्ट बिल विवाद, दिल्ली दरबार का आयोजन या फिर आकालो की बारंबारता ही क्यों ना हो इन सभी कार्य वाक्यों के चलते भारत में सुधारात्मक गतिविधियां भी तीव्र हुई, अतः अधिकांश भारतीय नेता 1861 के अधिनियम से असंतुष्ट थे। 1861 के बाद भारतीयों में राजनीतिक चेतना तथा राष्ट्रीयता का विकास हुआ। इसी दौर में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना एक महत्वपूर्ण घटना साबित हुई अगर देखें तो भारतीय परिषद अधिनियम 1892 मुख्यता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1889 से 1891 तक के अधिवेशन में स्वीकार किए गए प्रस्तावों से प्रभावित होकर पारित किया गया था क्योंकि कांग्रेस के निर्माण के पश्चात ही इस बात पर प्रमुख जोड़ दिया गया कि तक भारत की जनता को उसके निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से विधान मंडलों में अपनी आवाज उठाने की इजाजत नहीं मिल जाती तब तक भारत पर अच्छी तरह से शासन नहीं किया जा सकता। जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न सुधार देखे गए और इसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(i) 1892 के अधिनियम के द्वारा वायसराय की परिषद में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर कम से कम 10 तथा अधिक से अधिक 16 कर दी गई, इसी प्रकार प्रांतीय विधान परिषदों में भी अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। भी
(ii) अधिनियम के द्वारा विधान परिषदों के कार्य में वृद्धि करते हुए बजट में बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने हेतु कार्य सौंपा गया।
(iii) इस अधिनियम के द्वारा वायसराय को केंद्र में एवं गवर्नर को प्रांतीय विधान परिषदों में नामांकित किए गए गैर सरकारी सदस्यों के संदर्भ में विशेषाधिकार दिए गए, प्रांतीय विधान परिषदों में गवर्नर गैर सरकारी सदस्यों के चयन के लिए विश्वविद्यालय, नगर पालिका परिषद, जमीदार इत्यादि संस्थाओं का सहारा लेकर नामांकित कर सकता था। वहीं अगर केंद्रीय स्तर पर देखें तो वायसराय को यह अधिकार दिया गया था कि वह केंद्रीय विधान परिषद एवं बंगाल चेंबर ऑफ कॉमर्स में गैर सरकारी सदस्यों की नामांकित कर सकता था।
(iv) अधिनियम के द्वारा केंद्रीय और विधान परिषदों में दोनों में गैर सरकारी सदस्यों की नियुक्ति हेतु एक समिति एवं अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया गया बाहर हाल लेकिन चुनाव शब्द का अधिनियम में कहीं प्रयोग नहीं हुआ इसे निश्चित निकायों की सिफारिश पर की जाने वाली नामांकन प्रक्रिया ही कहा जा सकता था।
(v) अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका सभा के गैर-सरकारी तथा कुल सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गई। बम्बई एवं मद्रास में यह संख्या 20 तथा उत्तरप्रदेश में 15 निश्चित की गई।
1892 का अधिनियम स्वाभाविक रूप से 1861 के अधिनियम के अपेक्षा एक उन्नत अधिनियम था जिसके तहत विधान परिषदों का कार्यक्षेत्र विस्तृत कर दिया गया। सदस्यों को प्रश्न करने, कार्यकारिणी से सूचना प्राप्त करने, बजट पर विचार करने तथा उसमें संशोधन लाने का प्रस्ताव करने का अधिकार दिया गया था। विधान परिषद केवल सरकार के हाथ की कठपुतली नहीं रही। कार्यक्षेत्र में विस्तार होने के कारण विधान परिषदों के प्रति प्रबुद्ध भारतीयों का आकर्षण बढ़ा और इसकी सदस्यता स्वीकार करने में गोपाल कृष्ण गोखले, आशुतोष मुखर्जी, रासबिहारी घोष, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे बड़े नेताओं को हिचकिचाहट नहीं हुई। प्रबुद्ध भारतीयों के विधान परिषद में सम्मिलित होने से उनकी योग्यता एवं संसदीय पद्धति के प्रति उनके ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई। क्योंकि इसके द्वारा विधान परिषद में प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया गया और परिषद में कार्यों का विस्तार करते हुए इस को अधिक उत्तरदायी बनाने का प्रयास किया गया, वहीं अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति का प्रारंभ में भी कहीं ना कहीं बेहतर थी किंतु भारत में जन्म लेते राष्ट्रवाद के समक्ष यह अधिनियम उनकी मांगों की पूर्ति करने में असक्षम था।
“अधिनियम की वास्तविक क्रियाशीलता उसके खोखलेपन को प्रकट कर रही थी।” – गोपाल कृष्ण गोखले
“इस अधिनियम के अधीन किसी भी सदस्य को प्रस्ताव प्रस्तुत करने अथवा परिषद में किसी नियम अथवा प्रश्न पर मतदान की मांग करने का अधिकार नहीं होगा। भारतीयों को दी गयी रियायतों का इस प्रकार का असन्तोषजनक स्वरूप है। इस अधिनियम के अधीन बनाये हुए नियमों में विधान परिषदों की बैठकों में कोई संशोधन नहीं किया जा सकेगा। इस तरह से हम सब बातों में एक निरंकुश शासन के अधीन हैं।” – दादाभाई नैरोजी
भारत परिषद अधिनियम 1909 :
1909 के परिषद अधिनियम की पृष्ठभूमि 1892 के ही अधिनियम में तैयार हो गई थी, क्योंकि इसके पश्चात विभिन्न प्रकार के असंतोष भारतीय राष्ट्रवाद में नजर आने लगे थे, वही बंगाल में हुआ विभाजन कहीं ना कहीं इस चीज के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था कि भारतीयों की आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नए विनियमो का निर्माण किया जाए इसे देखते हुए तत्कालीन सेक्रेट्री आफ स्टेट फॉर इंडिया लॉर्ड मार्ले तथा तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो ने मिलकर के कतिपय संवैधानिक सुधार प्रस्ताव तैयार किए जिसे हम भारत परिषद अधिनियम 1909 के नाम से जानते हैं इसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(i) इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों की संख्या में वृद्धि की गई इसके तहत केंद्रीय विधान परिषद के सदस्यों की संख्या को बढ़ाकर 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई, किन्तु प्रांतीय विधान परिषदों के संदर्भ में यह संख्या भिन्न-भिन्न थी।
- केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा लेकिन प्रांतीय में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी।
- विधान परिषद के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन की प्रक्रिया को भी शुरू किया गया।
(ii) इस अधिनियम के द्वारा अनुपूरक प्रश्न एवं बजट पर प्रस्ताव से संबंधित कार्यों क्रियान्वित करने का प्रारंभ किया गया था।
(iii) इस अधिनियम से प्रेसीडेंसी कार्पोरेशन, जमींदार, चैम्बर ऑफ कॉमर्स एवं विश्वविद्यालयों हेतु अलग-अलग प्रावधान किया गया। इसमें चाय बागान मालिकों के लिए भी अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया।
(iv) इस अधिनियम के द्वारा मुस्लिम संप्रदाय के लिए पृथक निर्वाचक मंडल या पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर दी गई जो आगे चलकर खतरनाक सिद्ध हुआ।
- इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए केवल मुस्लिम मतदाता ही मतदान कर सकता था।
- मुस्लिमों को जनसंख्या के आधार पर केंद्रीय और प्रांतीय परिषद में अधिक प्रतिनिधियों को भेजने की व्यवस्था की गयी।
- मुस्लिम व्यक्तियों के लिए वोट डालने के लिए आय की योग्यता भी हिंदुओं से कम रखी गयी।
- इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की। इसी कारण लार्ड मिंटो 2 (द्वितीय) को सांप्रदायिक निर्वाचन का जनक के रूप में भी जाना जाता है।
(v) इसके द्वारा पहली बार किसी भारतीय को वायसराय की कार्य परिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया।
Note: सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बने और उनको विधि सदस्य बनाया गया था।
अंततः हम देखते है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा उदारवादी भारतीयों को खुश करने कार्य तो अवश्य किए गए किन्तु विधान परिषदों में सीटों की संख्या बढ़ाना कहीं न कहीं सकारात्मक परिणाम को दर्शाता है। बावजूद इसके इन मार्ले-मिटों अधिनियम के द्वारा पृथक निर्वाचन का जो प्रावधान किया गया उससे भारतीय सौहार्द्र में कमी आई और साम्प्रदायिकता या आधार तैयार हुआ जिसकी परिणति हमें आगे आने वाले समय में दिखेगी।
भारतीय शासन अधिनियम 1919 :
20 अगस्त, 1917 को मोंटेग्यू घोषणा के तहत भारत के उतार-चढ़ाव वाले इतिहास में पहली बार “जिम्मेदार सरकार” की स्थापना का वादा किया गया। वहीं सन् 1918 में प्रकाशित मांटेस्क्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में स्वशासित डोमिनियन के दर्जे की मांग की पूर्ण उपेक्षा की गई उसके विपरीत उसमें मनमाने ढंग से पृथक निर्वाचक मंडल संबंधी उन तथ्यों को आधार बनाया गया जिन पर कांग्रेस एवं मुस्लिम लींग के मध्य सन् 1916 में लखनऊ अधिवेशन में समझौता हुआ था। मांटेस्क्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के प्रवर्तनों को भारत के रंग-बिरंगे इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण घोषणा की संज्ञा दी गई है। यहां ध्यातव्य रहे कि तत्कालीन मांटेस्क्यू भारत सचिव थे वहीं चेम्सफोर्ड भारत के तत्कालीन वायसराय थे।
(i) इस अधिनियम के द्वारा पहली बार देश में द्विसदनीय व्यवस्था एवं प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ की गई जिससे भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था यानी राज्य सभा एवं लोक सभा का गठन किया गया दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रक्रिया द्वारा निर्वाचित किए जाने का प्रावधान किया गया था। सदस्यों का चुनाव अधिनियम के अंतर्गत बनाए गए नियमों के अधीन श्रीमान के निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना था मताधिकार का विस्तार कर दिया गया था निर्वाचन के निमित्त औरतों में बहुत भिन्नता की और सांप्रदायिक समूह निवास और संपत्ति पर आधारित थी।
(ii) इस अधिनियम के द्वारा वायसराय की कार्यकारी परिषद के 6 सदस्यों में से 3 सदस्यों का भारतीय होना निश्चित किया गया।
(iii) इस अधिनियम के द्वारा प्रांतीय विषयों को पुनः दो भागों में विभक्त किया गया हस्तांतरित और आरक्षित अर्थात हस्तांतरित विषय पर गवर्नर का शासन होता था और इस कार में 1 मंत्रियों की सहायता लेता था जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदाई थी दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर गवर्नर कार्यपालिका के परिषद की सहायता से शासन करता था जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदाई नहीं थी शासन की इस दोहरी व्यवस्था को ही शासन व्यवस्था कहा गया, ध्यान रहे की यह अधिनियम राज्य के विषय पर द्वैध शासन की बात करता है किंतु 1935 का अधिनियम केंद्र के स्तर पर द्वैध शासन की बात करेगा।
(iv) इस अधिनियम के द्वारा पृथक निर्वाचन के सिद्धांत को विस्तारित करते हुए सिक्खों, भारतीय ईसाइयों, आंग्ल भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक निर्वाचन व्यवस्था स्थापित की गई।
(v) इस अधिनियम के द्वारा लंदन में भारतीय उच्चायुक्त के कार्यालय का निर्माण किया गया जो कि भारत सचिव के कार्य भार को कम करता था।
(vi) इस अधिनियम के द्वारा राज्य के बजट को केंद्र के बजट से अलग करते हुए प्रथक प्रथक बजट निर्मित करने का प्रावधान किया गया, जो कि राज्यों को अपने स्तर पर स्वयं करना था।
(vii) अधिनियम में भारत में शासन की आवश्यकता को देखते हुए एक लोक सेवा आयोग की स्थापना का भी प्रावधान था।
(viii) इस अधिनियम के द्वारा भारत सचिव के वेतन एवं भत्तों को भारतीय राजस्व की बजाय ब्रिटिश राजस्व से देना प्रारंभ किया गया।
(ix) इस अधिनियम की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसके द्वारा पहली बार महिलाओं को वोट डालने का अधि कार दिया गया।
(x) इस अधिनियम अधिनियम में 10 वर्ष पर वैधानिक आयोग की स्थापना की बात कही गई ताकि अधिनियम की प्रासंगिकता का विश्लेषण किया जा सके कि यह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में कितना सफल रहा।
1919 का अधिनियम भी अपने पूर्व के अधिनियमओं की भांति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका इस इसके अलावा प्रांतीय विधानमंडल गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बगैर अनेक विषय क्षेत्रों में विधेयक पर बहस नहीं कर सकते थे क्योंकि केंद्रीय विधान मंडल संपूर्ण क्षेत्र के लिए कानून बनाने के लिए सर्वोच्च तथा सक्षम बना रहा केंद्र तथा प्रांतों के मध्य शक्तियों के बंटवारे के बावजूद ब्रिटिश भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बना रहा।
वहीं अगर प्रांतों में द्वैध शासन की स्तर की बात की जाए तो वहां भी वित्तीय संसाधनों के अभाव के कारण हस्तांतरित विषय के अधिकार बिना गवर्नर की सहायता के कोई विशेष प्रतिफल नहीं प्राप्त कर सके अतः यही कहा जाएगा कि द्वैध शासन की व्यवस्था प्रांतीय स्तर पर कहीं ना कहीं असफल साबित हुई, वही बढ़ती हुई राष्ट्रवाद की भावना के चलते यह मांग बार-बार उठती रही कि ब्रिटिश सरकार स्वशासन की अवधारणा को नहीं अपना रही है इनिया संतोषी को देखते हुए जिस वैधानिक आयोग का प्रावधान सन् 1919 के अधिनियम में किया गया था उसको 10 वर्ष के समय के पहले ही गठन करने पड़ा, जिसको कि सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में गठित किया गया था।
साइमन आयोग
सन् 1927 में ब्रिटिश सरकार ने साइमन आयोग का गठन सर जॉन साइमन के नेतृत्व में भारत में भारतीय शासन अधिनियम-1919 की कार्यप्रणाली की जांच करने और प्रशासन में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए किया। इसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन के नाम पर इस आयोग को साइमन आयोग के नाम से जाना गया। इसकी नियुक्ति भारतीय लोगों के लिए एक झटके जैसी थी क्योकि इसके सारे सदस्य अंग्रेज थे और एक भी भारतीय सदस्य को इसमें शामिल नहीं किया गया था। सरकार ने स्वराज की मांग के प्रति कोई झुकाव प्रदर्शित नहीं किया। आयोग की संरचना ने भारतियों की शंका को सच साबित कर दिया। आयोग की नियुक्ति से पूरे भारत में विरोध प्रदर्शनों की लहर सी दौड़ गयी। साइमन आयोग के मुख्य सुझाव निम्नलिखित है-
(i) रिपोर्ट में भारतीयों की औपनिवेशिक स्वराज की मांग की पूर्ण उपेक्षा की गयी थी।
(ii) इसने भारतीयों की केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने की मांग को स्वीकार नहीं किया।
(iii) प्रांतों में यद्यपि इसने उत्तरदायी मंत्रिमंडल की स्थापना करने की व्यवस्था की, लेकिन इसके साथ ही प्रांतीय गर्वनरों को कुछ ऐसी विशेष शक्तियां प्रदान करने की सिफारिश की गयी, जिससे उत्तरदायी शासन का महत्त्व बहुत कम हो जाता।
(iv) रिपोर्ट में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को पूर्ववत् जारी रखने की सिफारिश की गयी।
(v) रिपोर्ट में भविष्य में भारत के लिए एक संघ शासन की स्थापना करने की सिपफारिश की गयी, जिसमें प्रत्येक प्रांत जहां तक संभव हो, अपने क्षेत्र में स्वामी हो। इस संघ में ब्रिटिश भारत के समस्त प्रांत और समस्त भारतीय देशी राज्य शामिल होंगे।
(vi) कमीशन ने केन्द्रीय क्षेत्र में उत्तरदायी शासन के मांग की पूर्ण उपेक्षा की। यहाँ तक कि उसने केंद्र में द्वैध शासन व्यवस्था की भी सिफारिश नहीं की, उसने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा को नियंत्रण से पूर्णतया स्वतंत्र रखने की सिफारिश की।
गोलमेज सम्मेलन
सरकार ने संवैधानिक सुधारों पर विचार करने के लिए नवंबर में 1930 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया इसके बाद ऐसे ही एक के बाद एक दो सम्मेलन हुए और दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1933 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की उसमें एक नए संविधान की रूपरेखा दी गई थी इस योजना में संघीय ढांचे तथा प्रांतीय स्वायत्तता के लिए लिए कहा गया। इस योजना में संघीय ढांचे एवं प्रांतीय स्वायत्तता के संदर्भ में बंधुओं को शामिल किया गया था इसमें केंद्र में द्वैध शासन की सिफारिश की गई एवं प्रांतों में जिम्मेदार सरकारों के प्रस्ताव को को मान्यता दी गई।
गोलमेज सम्मेलन के अंतिम सत्र के समाप्त होने के बाद राज्य सचिव ने तीन बातों की पुष्टि की-
नए संवैधानिक ढांचे को संघीय रूप तभी दिया जाएगा, जब भारतीय राज्यों की आधी से ज्यादा जनसंख्या इसको माने।
केन्द्रीय विधान मंडल में ब्रिटिश भारत के कुल प्रतिनिधित्व का एक-तिहाई भाग मुस्लिमों को देना। तथा सिंध और उङीसा अलग राज्य होंगे।
बाद में 1933 ई. में इन प्रस्तावों पर श्वेत पत्र जारी किया गया। यह तीन मुख्य सिद्धांतों संघ की स्थापना, प्रांतीय स्वायत्तता एवं कार्यपालिका में निहित विशेष उत्तरदायित्व और सुरक्षा केन्द्र और प्रांतों दोनों पर आधारित था।
भारत शासन अधिनियम, 1935 :
गोलमेज सम्मेलनों के श्वेत पत्र प्रस्ताव पर आधारित नई विधायिका के विवादों में घिर जाने के बाद, इसे लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता वाली संसद की संयुक्त समिति को सौंप दिया गया। इस समिति में ब्रिटिश भारत व भारतीय रजवाड़ों से 21 प्रतिनिधियों को इसमें शामिल किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट नवम्बर 1934 में प्रस्तुत की। इसकी सिफारिशों पर आधारित, भारत शासन अधिनियम संसद द्वारा पारित होने के बाद 2 अगस्त, 1935 को शाही स्वीकृति के लिये भेज दिया गया।
नए अधिनियम 15 अनुसूचियों सहित 451 धाराएं थी। इससे पहले ब्रिटिश संसद ने इतने बड़े तथा जटिल संविधान को नहीं अपनाया था। इसके मुख्य प्रावधान निम्नलिखित है-
(i) भारत शासन अधिनियम 1935 के द्वारा अखिल भारतीय संघ की स्थापना का प्रावधान था जिसमें प्रांत एवं देशी रियासतों को भी शामिल किया गया था।
(ii) इस अधिनियम के द्वारा प्रांतों के स्वशासन की बात कहीं गई एवं समस्त विषयों को तीन भागों में बांटा गयाः
- (अ) संघीय विषय (59)
- (ब) प्रांतीय विषय (54)
- (स) समवर्ती विषय (36)
(iii) इस अधिनियम के द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन को समाप्त करते हुए, प्रांतीय स्वायत्तता को प्रारंभ करने का फैसला किया। वहीं प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना का प्रावधान किया गया जिसका तात्पर्य यह था गवर्नर को उत्तरदायी मंत्रियों की सलाह पर कार्य करना होगा जिसको सन् 1937 से प्रारंभ किया गया। 11 राज्यों में से 6 में द्विसदनीय व्यवस्था (विधान सभा और विधान परिषद) प्रारंभ की गई। बंगाल, बम्बई, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत और असम। हालांकि इन पर कई प्रकार के प्रतिबंध थे।
(iv) केंद्र के स्तर द्वैध शासन प्रणाली का प्रारंभ किया गया जिसके विषयों को हस्तांतरित एवं आरक्षित विषयों में विभक्त किया जाना था।
(v) इस अधिनियम से पृथक निर्वाचन व्यवस्था का विस्तार कर दलित महिला और मजदूर वर्ग के लिए साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान लाया गया।
(vi) इन अधिनियम के द्वारा मताधिकार का विस्तार किया लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या को मत डालने का अधिकार मिला।
(vii) इस अधिनियम के द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना का प्रावधान किया गया।
(viii) यह अधिनियम संघीय न्यायालय की स्थापना का प्रावधान भी था जिसकी स्थापना 1937 में की गई थी। यहां ध्यातव्य रहे कि संघीय न्यायालय को वर्तमान भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का पूर्ववर्ती माना जाता है।
(ix) इस अधिनियम में संघीय लोक सेवा आयोग प्रांतीय सेवा आयोग एवं संयुक्त सेवा आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया। (दो या दो से अधिक प्रांतों के लिए)
(x) इस अधिनियम के द्वारा भारत शासन अधिनियम 1958 के द्वारा स्थापित “भारत परिषद” को समाप्त कर दिया। यहां इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखे कि भारत सचिव के पद को सन् 1947 के अधिनियम में समाप्त किया जाएगा न कि सन् 1985 के अधिनियम में।
(xi) वर्मा एवं अदन को इस अधिनियम के द्वारा भारतीय क्षेत्र से बाहर कर दिया गया। (xii) इस अधिनियम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए ब्रिटिश संसद से अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया।
1935 का भारत शासन अधिनियम (Government of India Act, 1935) बहुत लम्बा और जटिल था। अधिनियम में 451 धाराएं और 15 परिशिष्ट थे। अधिनियम के इतने लम्बे और पेचीदा होने का मूल कारण यह था कि एक ओर तो भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता के कारण भारत के लोगों को सत्ता का पर्याप्त हस्तांतरण आवश्यक हो गया था, दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार शक्ति हस्तांतरण के साथ-साथ अपने हितों की रक्षा की पूरी व्यवस्था कर लेना चाहती थी।
प्रांतीय स्वायत्तता की दृष्टि से यह अधिनियम अत्यधिक महत्वपूर्ण था। भारतीयों को प्रशासन तंत्र में प्रवेश करके हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस एक्ट से प्रतिनिधि शासन व्यवस्था का सूत्रपात भी हुआ।
1919 के अधिनियम की तुलना में यह निश्चय ही एक प्रगतिशील प्रयास था। इस अधिनियम के कारण प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना हुई। भारत के एकीकरण का मार्ग भी इसी अधिनियम के द्वारा प्रशस्त हुआ। इस अधिनियम के द्वारा देशी रियासतों का अखिल भारतीय संघ में समावेश करना भारत के राजनीतिक एकीकरण का प्रयास था। इस अधिनियम में प्रदत्त प्रांतीय स्वायत्तता से संलग्न भारतीयों को प्राप्त राजनीतिक प्रशिक्षण संविधान निर्माण व स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय शासन को संचालित करने में सहायक सिद्ध हुआ।
भारतीयों को अपने भाग्य का निर्णय करने का इस अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं था। यह अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा निर्मित हुआ और उसी को भारत की प्रगति का निर्णायक स्वीकार किया गया। अधिनियम द्वारा भारत पर ब्रिटिश संसद या भारत मंत्री के नियंत्रण में कोई कमी नहीं की गई।
अतः इस अधिनियम में भारत की प्रगति का कोई कार्यक्रम नहीं था। इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप से यह अधिनियम राष्ट्रीय मांगों को पूरा करने के लिए बनाया गया था, परंतु अप्रत्यक्ष रूप से यह साम्राज्यवादी हितों का ही रक्षक था।
1942 का क्रिप्स मिशन
द्वितीय विश्वयुद्ध जनित परिस्थितियों के मध्य ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने 22 मार्च, 1942 ई. को स्टोफर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। इस आयोग का प्रमुख उद्देश्य भारतीयों से वार्ताकर युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन करने तथा उनसे भविष्य की संवैधानिक प्रगति के बारे में बात करना था।
क्रिप्स मिशन के प्रमुख प्रावधानः
युद्ध के पश्चात भारत को डोमिनियन स्टेट्स प्रदान करना, देशी रियासतों को यह अधिकार होगा कि वे भारतीय संघ में बने रहे अथवा अलग हो जाए, भारतीय संविधान के निर्माण होने तक ब्रिटिश सरकार भारत की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होगी।
1946 की कैबिनेट मिशन योजना
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ब्रिटेन के नव निर्वाचित प्रधानमंत्री ने 19 फरवरी, 1946 ई. को कैबिनेट मिशन का गठन किया।
- सर स्टोफर्ड क्रिप्स, ए.बी. ऐलेक्जेंडर तथा लॉर्ड पैथिक लॉरेंस को इस मिशन का सदस्य बनाया गया था।
- इस मिशन का उद्देश्य भारतीय संविधान निर्मात्री सभा का गठन करना संविधान निर्माण के तरीकों पर आम सहमति के लिए ब्रिटिश भारत के चुने हुए प्रतिनिधियों और भारतीय राज्यों से बातचीत करना तथा भारत के मुख्य दलों की मदद से कार्यकारी परिषद का गठन करना था।
- नोटः कैबिनेट मिशन तथा भारतीय नेताओं के बीच वार्ता के लिए बैठक शिमला में आयोजित की गयी थी।
प्रमुख प्रावधान
कैबिनेट मिशन के प्रावधान में यह कहा गया कि ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों का एक संघ बने जिसके हाथ में सुरक्षा विदेशी मामले आदि से सम्बन्धित सभी मामले होंगे।
- संघ की कार्यकारिणी तथा एक विधायिका का प्रावधान।
- एक संविधान सभा का निर्माण करना आदि।
माउंटबेटन ने विभाजन की योजना तैयार की और ब्रिटेन में विरोधी दलों के नेताओं से विचार-विमर्श करने के बाद 3 जून, 1947 को एक नया नीति विषयक बयान जारी किया गया जिसमें माउंटबेटन योजना को स्पष्ट रूप से समझाया गया था। इस बयान में सम्मिलित योजना के अंतर्गत देश के विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया था। इस बयान के अनुसार वर्तमान संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान को अनिच्छुक क्षेत्रों पर थोपा नहीं जा सकता था। अतः ऐसे क्षेत्रों की इच्छाओं का पता लगाने के लिए कि क्या वे पृथक संविधान सभा चाहते हैं, एक प्रक्रिया निर्धारित की गई। इस समूची योजना का वास्तविक परिणाम तथा प्रभाव वहीं होना था कि भारत का विभाजन भारत तथा पाकिस्तान के रूप में कर दिया जाए।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 :
आधुनिक भारत के इतिहास में 1947 ई. के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम का विशेष महत्व है। इसका निर्णायक महत्व इस दृष्टि है कि इसने भारत में एक नवीन युग की शुरुआत की। वस्तुतः ब्रिटिश संसद द्वारा पारित यह अंतिम अधिनियम था। इसके पश्चात् स्वतंत्र भारत का अपना संवैधानिक इतिहास प्रारंभ होता है।
वास्तव में 1947 का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम स्वयं में कोई मौलिक कृति न था। इसके द्वारा माउंटबेटन की योजना को ही प्रभावी बनाया गया था। भारत में अंतिम गवर्नर जनरल के रूप में माउंटबेटन की नियुक्ति का उद्देश्य, भारत में सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को मूर्तरूप देना था। माउंटबेटन ने प्रमुख भारतीय राजनीतिक दलों में एकमतता ध्येय प्राप्त कर अपनी योजना का प्रारूप तैयार किया। प्रारूप को वैधानिक रूप प्रदान करने के ध्येय से ब्रिटिश सरकार ने औपचारिकता पूरी करने हेतु कदम उठाया। इसी के प्रयास स्वरूप प्रधानमंत्री एटली ने माउंटबेटन योजना को विधेयक के रूप में 15 जुलाई, 1947 ई. को कामन्स सभा में तथा 16 जुलाई को लॉर्ड्स सभा में प्रस्तुत किया। शीघ्र ही 18 जुलाई 1947 ई. को इसके पारित होने के बाद इस पर शाही हस्ताक्षर हो गये। यही विधेयक भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के नाम से जाना गया। वस्तुतः इस अधिनियम द्वारा 3 जून, 1947 की योजना को ही वैधानिक रूप प्रदान किया गया था। इस अधिनियम की विशेषताए निम्नलिखित थी-
(i) इन दोनों डोमिनियन राज्यों की संविधान सभाओं को अपने देशों का संविधान बनाने और उसके लिए किसी भी देश के संविधान की अपनाने की शक्ति दी गयी।
(ii) संविधान सभाओं को यह भी शक्ति थी कि वे किसी भी ब्रिटिश कानून को समाप्त करने के लिए कानून बना सकते हैं। यहाँ तक कि उन्हें स्वतंत्रता अधिनियम को भी निरस्त करने का अधिकार था।
(iii) इसमें दोनों डोमिनियन राज्यों की संविधान सभाओं को यह शक्ति प्रदान की गयी कि वे नए संविधान का निर्माण एवं कार्यान्वित होने तक अपने-अपने सम्बन्धित क्षेत्रों के लिए विधानसभा बना सकते हैं। 15 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश संसद में पारित हुआ कोई भी अधिनियम दोनों डोमिनियनों पर तब तक लागू रहेंगे, जब तक की दोनों डोमिनियन उस कानून को मानने के लिए कानून नहीं बना लेंगे।
(iv) 15 अगस्त 1947 से प्रभावी रुप में ब्रिटिश भारत का दो नए और पूरी तरह से प्रभुत्व सम्पन्न उपनिवेश, भारत और पाकिस्तान में विभाजन।
(v) दो नवगठित देशों के बीच बंगाल और पंजाब के प्रांतों का विभाजन।
(vi) दोनों देशों में गवर्नर जनरल के कार्यालय स्थापित किए जाएंगे। ये गवर्नर जनरल क्राउन का प्रतिनिधित्व करेंगे। अनर जनरल Excelle
(vii) 15 अगस्त, 1947 से रियासतों पर से ब्रिटिश अधिपत्य समाप्त कर दिया जाएगा।
(viii) पूर्वी बंगाल, पश्चिमी बंगाल, सिंध और असम का सिलहट जिला पाकिस्तान में सम्मिलित होना था;
पाकिस्तान : पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, असम में सिलहट डिवीजन, बहावलपुर, खैरपुर, बलूचिस्तान के मुख्य आयुक्त के प्रांत और इसकी आठ अन्य रियासतें
बंगाल : बंगाल प्रांत का अस्तित्व समाप्त हो गया। दो नए प्रांत पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल अस्तित्व में आए।
पंजाब : दो नए प्रांत पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पंजाब अस्तित्व में आए।
(ix) 3 जून 1947 को, एक योजना की घोषणा की गई थी जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तावित किया गया था जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत शामिल थेः
- भारत के विभाजन का सिद्धांत ब्रिटिश सरकार द्वारा अनुमोदित किया गया था।
- उत्तराधिकारी सरकारों को प्रभुत्व का दर्जा प्राप्त होगा।
- ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग रहने का अधिकार भी होगा।
(x) भारत और पाकिस्तान दोनों प्रभुत्व अपने आंतरिक मामलों, विदेशी मामलों और राष्ट्रीय सुरक्षा में पूरी तरह से स्व-शासन कर सकते थे, लेकिन ब्रिटिश सम्राट भारत के गवर्नर जनरल और नए गवर्नर जनरल द्वारा प्रतिनिधित्व करने वाले अपने राज्य के प्रमुख बने रहेंगे।
(xi) 1858 से प्रारंभ किया गया भारत सचिव का पद भी समाप्त कर दिया गया, ज्ञातव्य रहे कि भारत परिषद का उन्मूलन सन 1935 में ही कर दिया गया था, भारत सचिव द्वारा मनोनीत किए जाने वाले शिक्षकों के संदर्भ में आरक्षण प्रणाली को भी समाप्त कर दिया गयास
(xii) भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम सन 1947 के द्वारा सम्राट की उपाधियों में से भारत के सम्राट की उपाधि को समाप्त कर दिया गया।
इस प्रकार, भारत तथा पाकिस्तान को अपने-अपने संविधान के निर्माण का अधिकार देकर भारतीय उपमहाद्वीप में साम्राज्यवादी युग का अंत कर दिया गया। इस परिणाम के कारण अधिनियम का यह पहलू तो सुखद था, किंतु विभाजन इस महाद्वीप के लिये इतनी बड़ी समस्या बन गया कि इसके दुष्परिणाम आज भी दिखाई देते हैं।
अंग्रेजों की जल्द वापसी के निर्णय से उत्पन्न समस्याएं अंग्रेजों की भारत से शीघ्रातिशीघ्र वापसी तथा भारतीयों को जल्द सत्ता हस्तांतरण करने के निर्णय से अनेक समस्यायें भी खड़ी हो गयीं। इससे विभाजन के संबंध में सुनिश्चित योजना बनाने की रणनीति गड़बड़ा गयी तथा यह पंजाब में व्यापक नरसंहार को रोकने में असफल रही क्योंकि – विभाजन की योजना के संबंध में एक सुनिश्चित एवं दूरदर्शितापूर्ण रणनीति का अभाव था। साथ ही यह योजना भी नहीं बनायी गयी थी कि विभाजनोपरांत उत्पन्न समस्याओं को कैसे हल किया जायेगा।
फलतः हम कह सकते हैं कि इस अधिनियम के जल्दबाजी भरे प्रावधान भारत के लिए काफी घातक सिद्ध हुए और भविष्य में उसके एक गलत परिणाम देखने को मिले किंतु सकारात्मक बिंदु यह रहा कि भारतीय उपमहाद्वीप के लोगो को पराधीनता से मुक्ति मिली।
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