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भारत में यूरोपियों का आगमन
यूरोपियों के भारत में आगमन के लिए जिम्मेदार कारक
भारत में यूरोपियों के आगमन का प्रमुख कारण पुनर्जागरण के पश्चात् प्राप्त ज्ञान बोध था जिसने यूरोपीय शासकों एवं विचारकों को शेष विश्व से परिचित कराया जिसके परिणामस्वरूप नवीन भौगोलिक खोजें हुई और उपनिवेशवाद की प्रारम्भिक अवस्था का निर्माण हुआ।
भारत की भौगोलिक एवं आर्थिक स्थिति ने भी यूरोपियों को आकर्षित किया।
भारत की जलवायविक परिस्थितियाँ भी कच्चे माल की उपलब्धता के आधार पर श्रेष्ठ थी।
जहाज निर्माण तथा नौ परिवहन में यूरोपियों की उन्नत तकनीक।
यूरोपियों का आर्थिक विकास |
भारतीय वस्तुओं जैसे मसाले, छींट रेशम, विभिन्न प्रकार के कीमती पत्थर, चीनी मिट्टी के बर्तनों इत्यादि की यूरोप में बढ़ती माँग ।
इस संधि के तहत पुर्तगाल तथा स्पेन के बीच अटलांटिक में एक आभासी रेखा के द्वारा पुर्तगाल के लिए पूर्व तथा स्पेन के लिए पश्चिम में गैर ईसाई को विभाजित किया गया। सभी नई भूमियों ( यूरोप के बाहर खोजी गई भूमि) को पुर्तगाल और स्पेन के मध्य बाँटा गया था।
भारत में पुर्तगालियों का आगमन
वास्कोडिगामा ( भारत में आने वाला प्रथम यूरोपीय यात्री)
वास्कोडिगामा 17 मई, 1498 में उत्तमाशा अंतरीप द्वीप (Cape of good hope) होते हुए अब्दुल मजीद नामक गुजराती पथ प्रदर्शक की सहायता से कालिकट पहुँचा तथा उसका जमोरिन (कालिकट का राजा) के द्वारा स्वागत किया गया।
1502 ई. तक वास्कोडिगामा की दूसरी यात्रा के दौरान कालिकट, कोचीन और कन्नूर में व्यापारिक केंद्रों की स्थापना तथा उनकी किलेबंदी की गई।
अन्य व्यापारियों के विपरीत पुर्तगाली भारत में व्यापार का एकाधिकार चाहते थे।
पेड्रो अल्वारेज कैवल (भारत में आने वाला द्वितीय पुर्तगाली )
1500 ई. में कालिकट में सबसे पहले फैक्ट्री की स्थापना की।
भारतीय उपमहाद्वीप पर यूरोपियों के शासन के युग की शुरुआत ।
फ्रांसिस्को डी अल्मीडा ( 1505-1509 )
भारत में पहला पुर्तगाली गवर्नर जिसने शांत जल की नीति ( ब्लू वाटर पॉलिसी) एवं कार्टेज प्रणाली की शुरुआत की।
कॉर्टेज प्रणाली
इसमें भारतीय भूमि पर किले बनाने के बजाय समुद्र में शक्तिशाली होने पर बल दिया गया था। अतः इसने तटीय प्रदेशों पर ही बस्तियाँ बसाई आन्तरिक भागों पर नियंत्रण नहीं किया।
कार्टेज अमेंडा प्रणाली
हिंद महासागर में पुर्तगालियों द्वारा जारी जल परिवहन लाइसेंस या पास।
अलफांसो डी अल्बुकर्क (1509-1515)
इसे भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है; इसने 1510 ई. में बाजीपुर से गोवा को जीत लिया, मुस्लिमों पर अत्याचार, विजयनगर के राजा श्री कृष्ण देव राय ने भटकल में अल्बुकर्क को एक किले के निर्माण करने का अधिकार दिया।
अल्बुकर्क ने हिन्दू महिलाओं के साथ विवाह की नीति अपनाई ।
अल्बुकर्क ने 1515 ई. में मलक्का और होर्मुज (ईरान) पर आधिपत्य कायम किया एवं लाल सागर के मुहाने पर स्थित सकोत्रा द्वीप, सुमात्रा, कोलम्बो इत्यादि में किले स्थापित किये।
इसके द्वारा अपने प्रभाव क्षेत्र में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया।
1515 ई. में अल्बुकर्क की गोवा में मृत्यु हो गयी तथा इस समय तक पुर्तगाली भारत में सबसे मजबूत नौसैनिक शक्ति के रूप में स्थापित हो चुके थे।
नीनो डी कुन्हा (1529-38 )
इसके द्वारा 1530 ई. में कोचीन की जगह गोवा को राजधानी बनाया गया। इस प्रकार भारत में पुर्तगाली उपनिवेश की राजधानी गोवा बन गया।
उसके शासनकाल में, दीव तथा वसाई को गुजरात के राजा बहादुर शाह से छीन लिया गया और उस पर पुर्तगालियों का कब्जा हो गया।
बहादुर शाह 1537 ई. में दीव में पुर्तगालियों से लड़ते हुए मारे गए।
यह एक व्यवहारिक नेता था जिसने पश्चिमी तटीय क्षेत्र से परे भी पुर्तगाली साम्राज्य का विस्तार किया। उसके समय में पुर्तगाली शक्ति का विस्तार पूर्वी तट तक हुआ।
पुर्तगालियों की धार्मिक नीति
प्रारंभ में, केवल मुस्लिमों के प्रति द्वेषपूर्ण थे, बाद में हिंदुओं के प्रति भी हो गये। 1579 में, बादशाह अकबर को ईसाई धर्म में परिवर्तित कराने के लिए ईसाई मिशनरियों को भेजा गया।
पुर्तगालियों की व्यापारिक व राजनैतिक स्थिति
स्पेन द्वारा हिन्द महासागर पर अधिकार छोड़ने के उपरान्त पुर्तगाली एक छत्र बादशाह हो गये इसे एस्तादो द इण्डिया के नाम से जाना गया। पुर्तगालियों ने सतगाव-चटगांव में फैक्ट्री खोली एवं बुन्देल और हुगली में भी कारखानों का निर्माण किया।
पुर्तगालियों ने वेडोर दा एजेंडा नामक पद स्थापित किया जिसका कार्य राजस्व तथा कार्गो एवं नौसैनिक बेड़ों को भेजना था।
भारत में पुर्तगालियों के पतन के लिए जिम्मेदार कारक
मिस्र फारस तथा उत्तरी भारत में शक्तिशाली राजवंशों का उदय तथा उनके पड़ोसियों के रूप में मराठाओं का उद्भव हुआ।
1538 ई. में तुर्की का अदन पर अधिकार हो गया जिससे पुर्तगाली न तो पूर्णतः मसालों के व्यापार पर नियंत्रण कर सके न ही अदन पर फर्नांड ब्राडल कहता है कि पुर्तगाली कस्टम ऑफीसर बनकर रह गए।
मिशनरियों की गतिविधियों से राजनीतिक भय तथा उत्पीड़न (जैसे न्यायिक जांच) से पुर्तगालियों के प्रति घृणा उत्पन्न हुई।
पुर्तगाली प्रभुता को चुनौती देने वाली अंग्रेजी तथा डच वाणिज्यिक संस्थाओं का उदय ।
भारत में पुर्तगाली शासन की समुद्री डकैती तथा अवैध व्यापार प्रथाओं के साथ बड़े विस्तृत पैमाने पर भ्रष्टाचार लालच एवं स्वार्थ ।
ब्राज़ील की खोज के कारण पुर्तगाली उपनिवेशों का पश्चिम की ओर पलायन ।
पुर्तगालियों के आगमन का महत्व
पुर्तगालियों ने न केवल यूरोपीय युग की शुरुआत की बल्कि नौसैनिक शक्ति के उदय को भी चिह्नित किया।
जहाज पर तोप के उपयोग की शुरुआत हुई।
पुर्तगाली समुद्र में उन्नत तकनीकों में माहिर थे। उन्होंने बहुत बड़ी मात्रा में एक से अधिक डेक वाले जहाजों का निर्माण किया।
मिशनरियाँ तथा चर्च में भारत में चित्रकारों, नक्काशी करने वालों तथा मूर्ति बनाने वालों के संरक्षक थे।
पुर्तगाली संगठन बनाने में कुशल थे जैसे शाही शस्त्रागार और जहाज बनाने के स्थान का निर्माण तथा निजी व्यापारिक जहाजों पर अंकुश लगाने के लिए राज्य बलों को खड़ा करना आदि उल्लेखनीय हैं।
इन्होंने भारत में युद्ध की यूरोपीय कला एवं गोथिक स्थापत्य शैली की शुरूआत की।
गोवा में चाँदी के काम करने वाले तथा सोने के काम करने वाले सुनार की कला का विकास किया।
पुर्तगालियों ने तम्बाकू, अफीम, काजू, अनानास, आलू एवं लाल मिर्च की खेती तथा प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत की।
पुर्तगाली भारत में सबसे पहले आये तथा भारत से सबसे अंत में गए। (1961 में) ।
भारत में डचों का आगमन (नीदरलैंडवासी)
कॉर्नेलिस डी हॉटमैन पहला डच था जो 1596 ई. में सुमात्रा और बेंटन पहुँचा था।
डच संसद के एक चार्टर के द्वारा मार्च 1602 में यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई।
आंध्र क्षेत्र में 1605 ई. में मसूलीपट्टनम (मच्छलीपटट्नम) में पहले कारखाने की स्थापना की गई।
बाद में ये पुर्तगालियों को हराकर प्रमुख यूरोपीय व्यापारिक शक्ति के प्रमुख के रूप में उभरे।
भारत में उनका प्रमुख केंद्र पुलिकट था। यही पर डचों के स्वर्ण सिक्के पैगोडा ढाले गये।
डच यमुना घाटी तथा मध्य भारत में उत्पादित नील (इंडिगो), बंगाल, गुजरात तथा कोरोमण्डल क्षेत्र से वस्त्र तथा रेशम, बिहार से शोरा और गंगा की घाटी से उत्पादित अफीम एवं चावल का व्यापार करते थे।
भारत से भारतीय वस्त्र के निर्यात का श्रेय डचों को ही दिया जाता है।
डच व्यापारिक व्यवस्था सहकारिता पर आधारित थी।
1623 ई. में, अंग्रेजों तथा डचों के बीच में एक संधि हुई जिसमें डचों ने भारत में तथा अंग्रेजों ने इंडोनेशिया में अपने अधिकार क्षेत्र के दावों को वापस ले लिया।
1650 ई. अंग्रेज भारत में एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरने लगे।
लगभग 70 वर्षों तक अंग्रेजों तथा डचों के बीच में लड़ाईयाँ जारी रही जिसमें डच एक-एक करके अपने बस्तियों/ उपनिवेशों को अंग्रेजों के हाथ खोते गये।
डचों को भारत में साम्राज्य स्थापित करने में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी, वे सिर्फ व्यापार करना चाहते थे। उनका मुख्य व्यापारिक केन्द्र इंडोनेशिया के स्पाइस द्वीप समूहों में था । जहाँ से वे व्यापार के माध्यम से बड़ा लाभ अर्जित करते थे।
भारत में प्रायः आंग्ल डच युद्धों में डचों की हार हुई एवं उनका ध्यान मलय द्वीप समूहों की ओर स्थानांतरित हो गया।
बेदरा के युद्ध, 1759 (हुगली के निकट) में अंग्रेजों ने डचों को पराजित कर दिया। इस पराजय से भारत में उनकी शक्ति समाप्त कर दी।
भारत में अंग्रेजों का आगमन
31 दिसम्बर, 1600 को इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के द्वारा एक चार्टर जारी किया गया जिसमें 15 वर्षों के लिए व्यापार का एकाधिकार प्रदान किया गया और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1600 में की।
1609 ई. में इंग्लैण्ड से कैप्टन हॉकिंस भारत में मुगल बादशाह जहाँगीर के शाही दरबार में आया तथा उसने सूरत में एक अंग्रेजी व्यापार केंद्र की स्थापना करने की इजाजत मांगी, लेकिन पुर्तगालियों के दबाव के चलते जहाँगीर ने उसे इजाजत देने से मना कर दिया।
अंग्रेज कैप्टन मिडलटन के द्वारा पुर्तगालियों पर विजय प्राप्त करने के बाद सूरत में एक फैक्ट्री की स्थापना की गई।
1615 में, सर थॉमस रो भारत में जेम्स प्रथम (इंग्लैण्ड के राजा) का दूत बनकर आया तथा भारत के अन्य हिस्सों में अंग्रेजी व्यापारिक फैक्टरियों की स्थापना के लिए जहाँगीर से अनुमति प्राप्त की।
1661 ई. में बॉम्बे चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगालियों से दहेज के रूप में प्राप्त हुआ।
1700 तक, मुंबई, मद्रास तथा कलकत्ता भारत में अंग्रेजी उपनिवेश के तीन प्रेसिडेंसी शहर बन चुके थे जिसकी राजधानी कलकत्ता थी ।
भारत आने के लिए समुद्री मार्ग ही क्यों?
यूरोप में 15वीं शताब्दी में पुनर्जागरण की भावना का उदय हो रहा था।
यूरोपीय अर्थव्यवस्था का तेजी से बढ़ना, जो समृद्धि तथा विलासिता के वस्तुओं की माँग की ओर बढ़ने लगी, माँस की आपूर्ति में वृद्धि जिसे संरक्षित रखने के लिए मसालों की आवश्यकता थी।
1543 ई. में कुस्तुनतुनिया तथा बाद में सीरिया एवं मिस्र पर ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की) का अधिकार हो गया, जिससे अरबों एवं तुर्की से बिना सामना किए भारत तक पहुँचने का मार्ग खोजने की जरूरत पड़ी।
वेनिस तथा जेनोआ तुर्कों से लड़ने के लिए बहुत छोटे थे।
उत्तरी यूरोपीय धन तथा आदमियों के द्वारा और जेनोआवासी, जहाजों एवं तकनीकी ज्ञान के द्वारा स्पेन एवं पुर्तगाल की मदद करते थे।
सबसे पहले पुर्तगालियों का भारत में आगमन हुआ तथा उसके बाद क्रमश: डच, अंग्रेज, डेनमार्क तथा फ्रांसीसी का भारत में आगमन हुआ।
भारत में डेन (डेनमार्क उपनिवेश) का आगमन
1616 ई० में डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई।
1620 में, भारत के पूर्वी तट पर तंजौर के निकट बैंकोबार में पहली फैक्ट्री एवं दूसरा सेरामपुर में स्थापित की गयी ।
उनकी प्रारंभिक बस्तियाँ कोलकाता के निकट सेरामपुर (मुख्यालय) में थी। डेनिश फैक्टरियों को 1745 में अंग्रेजी सरकार को बेच दिया और वे भारत से चले गये।
भारत में फ्रांसीसी का आगमन
1664 में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई तथा सूरत में पहली फैक्ट्री की स्थापना, फ्रैंकोइस कैरो के द्वारा की गयी।
1673 ई. में फ्रैंको मार्टिन द्वारा शेर खाँ लोदी से पांडिचेरी प्राप्त किया।
1698 ई. में पांडिचेरी डचों ने छीन लिया परन्तु फिर 1697 ई. में रेजविक की संधि से पुन: पांडिचेरी फ्रांसीसियों को दे दिया गया।
18वीं शताब्दी के आरम्भ में, अंग्रेज तथा फ्रांसीसी भारत में, मुख्य रूप से कर्नाटक तथा बंगाल के क्षेत्रों में, अपनी सर्वोच्चता / प्रभुत्व के लिए लड़ते रहे।
तीन कर्नाटक युद्धों के बाद, अंततः अंग्रेजों के द्वारा फ्रांसीसियों को हरा दिया गया तथा वह पांडिचेरी तक ही सीमित रह गए।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (सेंटथोमे का युद्ध)
काल
1740-48
कारण
आस्ट्रिया के उत्तराधिकार को लेकर ।
संधि
एक्शा-ला शापेल (1748 ई) की संधि द्वारा समाप्त ।
परिणाम
न तो फ्रांसीसियों को लाभ हुआ और ना ही अंग्रेजों को । इस युद्ध ने भारतीय राजाओं की कमजोरियाँ उजागर कर दी।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (अम्बर का युद्ध )
काल
1751-1755
कारण
हैदराबाद तथा कर्नाटक के आंतरिक विवाद को लेकर।
संधि
पांडिचेरी की संधि (1755) द्वारा समाप्त।
परिणाम
यह अनिर्णायक रहा। इसमें दक्षिण भारत में फ्रांसीसी तथा अंग्रेजों की शक्ति कम हुई। अतः अग्रेजों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वादा किया।
तृतीय कर्नाटक युद्ध (वाण्डिवाश का युद्ध)
काल
1756-1763
कारण
सप्तवर्षीय युद्ध से प्रभावित ।
संधि
पेरिस सन्धि (1763 ई.) के द्वारा समाप्त
परिणाम
वाण्डिवाश के युद्ध (1760 ई०) में अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को निर्णायक रूप से हरा दिया।
यूरोपीय व्यापारिक कम्पनी से संबंधित व्यक्तित्व
वास्कोडिगामा
पुर्तगाली यात्री, जो समुद्री मार्ग उत्तमाशा अंतरीप से 1498 में के कालीकट बंदर गाह पर उतरा।
पेड्रो अल्वारेज कैब्राल
पुर्तगाली यात्री जो वर्ष 1500 में भारत पहुंचा।
फ्रांसिस्को डी अल्मेडा
भारत में पहला पुर्तगाली गवर्नर ।
अल्फांसो डी अल्बुकर्क
भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक द्वितीय गवर्नर ।
नीनी डी कुन्हा
पुर्तगाली गवर्नर, जिसने 1530 में राजधानी कोचीन से गोवा स्थानांतरित की थी।
कैप्टन हॉकिन्स
अंग्रेज यात्री, जो जहांगीर के दरबार में 1609 में पहुंचा।
जॉब चार्नोक
कलकत्ता का अंग्रेज संस्थापक ।
थॉमस रो
ब्रिटिश जेम्स प्रथम का दूत, जो जहाँगीर के दरबार में 1615 से 1618 की अवधि में रहा, और साम्राज्य के विभिन्न भागों में कम्पनी के लिए अनुमति प्राप्त करने में सफल रहा।
चार्ल्स आयरे
कलकत्ता के फोर्ट विलियम का प्रथम प्रशासक ।
जॉन चाइल्ड
अंग्रेजी कम्पनी का अधिकारी, जिसने पश्चिमी तट पर मुगल जहाजों पर कब्जा कर लिया था और बाद में मुगल सम्राट औरंगजेब से क्षमा मांगी।
फर्रुखसियर
मुगल सम्राट, जिसने अंग्रेजी व्यापारिक कम्पनी को 1717 में फरमान दिया था।
विलियम नौरिस
अंग्रेजी कम्पनी का दूत, जो मुगल शासक औरंगजेब के पास व्यापारिक सुविधाओं की प्राप्ति हेतु गया था।
फैंको मार्टिन
पांडिचेरी का प्रथम फ्रांसीसी गवर्नर ।
फ्रांसिस डे
मद्रास का प्रसिद्ध अंग्रेज संस्थापक
शोभा सिंह
बर्दमान का जमींदार, जिसने 1690 के दशक में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था।
भीमाजी पारिख
अंग्रेजी कम्पनी का मध्यस्थ व्यापारी, जिसने भारत में प्रिंटिंग प्रेस के प्रसार हेतु विशेष प्रयास किया था।
फादर मॉन्सेरेट
मुगल दरबार में आने वाले प्रथम पुर्तगाली शिष्टमंडल का अध्यक्ष ।
जॉन सरमैन
मुगल सम्राट फर्रुखसियर से फरमान प्राप्त करने वाले अंग्रेजी शिष्टमंडल का नेतृत्वकर्ता ।
फ्रांसिस केरॉन
भारत में पहली फ्रांसीसी फैक्ट्री की स्थापना करने वाला फ्रांसीसी ।
गेराल्ड अंगियार
बॉम्बे का वास्तविक अंग्रेज संस्थापक । * यूरोपीय वाणिज्य के आरंभ से सम्बद्ध स्थल ।
यूरोपीय व्यापारिक कम्पनी से संबंधित स्थल
कालीकट
केरल में स्थित मालाबार तटीय बंदरगाह, जहां वॉस्को द गामा पहली बार 17 मई, 1498 को उतरा था।
कोचीन
केरल में स्थित बंदरगाह, जो भारत में पुर्तगालियों की आरंभिक राजधानी थी।
गोवा
गोवा राज्य, जो पुर्तगालियों का भारत में सर्वप्रमुख केन्द्र रहा।
सेन थोम
दक्षिण – पूर्व क्षेत्र में पुर्तगालियों का एकमात्र स्थल।
पुलिकट
तमिलनाडु में स्थित बंदरगाह, जो भारत डचों का सर्वप्रमुख केन्द्र रहा।
सेड्रास
मद्रास से दक्षिण में स्थित बंदरगाह, जो डचों का केन्द्र था।
बेदरा
बेदरा के युद्ध, 1759 में अंग्रेजों ने डचों को हराया था।
स्वाली
सूरत के निकट अवस्थित, जहां कैप्टन बेस्ट ने पुर्तगालियों को हराया था ।
हरिहरपुर
उड़ीसा में अवस्थित, जहां 1633 में अंग्रेजों ने अपनी फैक्ट्री स्थापित की।
त्रैंकोबार
तमिलनाडु में स्थित, जहां डेनिशों ने अपनी फैक्ट्री स्थापित की।
सेरामपुर
बंगाल में स्थित, जहां डेनिशों ने 1676 में अपनी फैक्ट्री स्थापित की।
पांडिचेरी
भारत में फ्रांसीसी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र, जो कोरोमंडल तट पर है।
चाउल
महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट पर अवस्थित, जहां पुर्तगाली व्यापारिक केन्द्र था।
पटना
बिहार राज्य की राजधानी, जो शोरे के उत्पादन के कारण प्रसिद्ध था और यहां डचों की फैक्ट्री स्थापित थी ।
चटगांव
वर्तमान बांग्लादेश में स्थित, जिसे पुर्तगाली हतंदक चवतज कहते थे।
कन्नानोर
मालाबार तटीय क्षेत्र में स्थित, जहां वास्कोडिगामा ने 1505 ई. में फैक्ट्री खोली ।
सुतानती, कलिकाता व गोविंदपुर
इन तीन गांवों को मिलाकर कलकत्ता की स्थापना हुई थी।
ब्रिटिश विजय के समय मुगलों की स्थिति
औरंगजेब के शासनकाल (1658-1707 ई.) की गलत नीतियों से मुगल साम्राज्य की स्थिरता क्षीण हुयी लेकिन सेना एवं प्रशासनिक व्यवस्था जैसे दो स्तम्भ 1707 ई. तक सीधे खड़े रहें ।
उत्तराधिकार की लड़ाईयों और कमजोर शासकों ने दिल्ली को त्रस्त कर दिया जिससे कई स्थानीय प्रमुखों ने स्वतंत्रता का दावा करना शुरू कर दिया।
18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुगल शासन की शक्ति एवं प्रतिष्ठा का पतन हुआ।’
मुगलों के समझ चुनौतियाँ
बाह्य चुनौतियाँ :
बाह्य आक्रमण, नादिरशाह का आक्रमण (1738-39 ई.) अहमद शाह अब्दाली का आक्रमण (1748-1767 ई.)।
आंतरिक चुनौती :
औरंगजेब के बाद कमजोर शासक।
मराठों, सिखों, राजपूतों की बढ़ती साख के कारण प्रशासनिक चुनौती |
स्थानीय गवर्नर द्वारा विद्रोह व स्वतंत्रता की घोषणायें।
उत्तरकालीन मुगल शासक
हैदराबाद, बंगाल, अवध तथा पंजाब जैसे नए राज्य स्थापित हुए तथा मराठाओं ने भी अब सिर उठाना शुरू कर दिया था।
बहादुर शाह प्रथम ( 1707 से मार्च, 1712)
उपाधि : शाह-ए-बेखबर ( खफी खाँ द्वारा ) ।
औरंगजेब का सबसे बड़ा पुत्र शहजादा मुअज्जम 63 वर्ष की उम्र में बादशाह बना।
मराठाओं (शाहू की रिहाई), जाटों तथा राजपूतों के प्रति उदार नीति अपनायी ।
सिख नेता बंदा बहादुर द्वारा आक्रमण किया गया।
गुरु गोविन्द सिंह के समकालीन थे।
जहाँदार शाह (फरवरी 1712 फरवरी 1713)
उपाधि – लम्पट मूर्ख / लापरवाह ।
इजारा व्यवस्था की शुरूआत की।
जजिया कर को समाप्त किया।
फर्रुखसियर (17131719 ई.)
उपाधि – घृणित कायर / साहिद-ए-मजलूम –
सैयद बंधुओं की मदद से जहाँदार शाह की हत्या की।
सैयद बंधुओं ( अब्दुल्ला खान तथा हुसैन अली) को नृपनिर्माता (किंग मेकर) के रूप में जाना जाता था।
यह धार्मिक सहिष्णु था अतः इसने जजिया तथा धार्मिक यात्रा पर कर को समाप्त कर दिया।
कुलीनों के द्वारा मारा जाने वाला पहला शासक।
इसने अंग्रेजों को 1717 ई. में तीन फरमान जारी किए जिसे कंपनी का मैग्नाकार्टा कहा जाता है।
बंदाबहादुर की हत्या करवायी ।
रफी-उद्-दरजात (28 फरवरी-4 जून, 1717 )
सबसे कम अवधि के लिए शासन करने वाला शासक।
मृत्यु का कारण – क्षयरोग (TB)
रफी-उद्-दौला (शाहजहाँ द्वितीय) (16 जून 17 सितंबर, 1719 )
यह अफीम का आदी था।
मृत्यु का कारण पेचिस की बीमारी।
मुहम्मद शाह (रंगीला) (1719 – 48 ई.)
इसने निजाम-उल-मुल्क की मदद से सैयद बंधुओं की हत्या कर दी।
1724 ई. में निजाम-उल मुल्क के द्वारा स्वतंत्र हैदराबाद राज्य की स्थापना की गयी।
1734 ई. में दिल्ली पर बाजीराव प्रथम का आक्रमण हुआ।
1739 ई. में करनाल का युद्ध नादिरशाह के द्वारा मुगलों की पराजय हुई।
जजिया कर को अंतिम रूप से समाप्त कर दिया।
इसके समय फारस के शासक नादिरशाह ने 1739 ई. में दिल्ली पर आक्रमण किया था।
अहमदशाह बहादुर (1748-54 ई.)
यह एक अयोग्य शासक था। इसने उधम बाई (रानी माँ / किब्ला-ए-आलम) के हाथों सिहांसन सौंप दिया था।
इसी के काल में 1748 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया।
आलमगीर द्वितीय (1754-58 ई.)
इसका नाम अजीजुद्दीन था ।
इसके शासन में प्लासी का युद्ध (1757) हुआ।
शाह आलम द्वितीय / अलीगौहर (1759-1806 ई.)
पानीपत का तीसरा युद्ध (1761) हुआ।
बक्सर का युद्ध (1764), इलाहाबाद की संधि (1965) हुई।
शाही फरमान के द्वारा अंग्रेजों को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्रदान की गई।
अकबर द्वितीय (1806-37 ई.)
इसने राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि प्रदान की।
बहादुर शाह द्वितीय / जफर
अंतिम मुगल बादशाह ।
1857 का विद्रोह ।
नादिर शाह (फारसी) का आक्रमण (1738-1739 ई.)
इसका उद्देश्य धन को लूटना था।
करनाल का युद्ध (1739 ) मुगलों की हार हुयी।
लाहौर पर कब्जा तथा मोहम्मद शाह को बंधक बना लिया गया।
सिंधु नदी के पश्चिम के क्षेत्रों पर कब्जा ।
इसके द्वारा तख्त-ए-ताउस ( मोर सिंहासन), कोहिनूर को लूट लिया गया।
अहमद शाह अब्दाली का आक्रमण (1748-1764 ई.)
इसे दुर्रे – दुर्रानी (युग का मोती) कहा जाता है।
यह नादिरशाह का उत्तराधिकारी था।
पानीपत का तीसरा युद्ध (1761) हुआ जिसमें मराठों की हार हुयी।
मुगलों के पतन के कारण
भारत में मुगल साम्राज्य के पतन में उत्तरवर्ती (औरंगजेब के पश्चात् शासक) मुगल सम्राटों की व्यक्तिगत अक्षमताएं, विलासिता धर्मान्धता एवं दरबारी गुटबंदियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
साम्राज्य संबंधी
औरंगजेब के बाद निःशक्त उत्तराधिकारी ।
उत्तराधिकार के लिए कोई निश्चित नियम नहीं ।
मुगल अभिजात वर्ग का पतन, सैनिक दुर्बलता ।
एक केंद्रीय सत्ता के द्वारा शासित होने के लिए बहुत विस्तृत क्षेत्र ।
औरंगजेब की दक्कन तथा धार्मिक नीतियाँ ।
ईरानी तथा तूरानी राज्यों के द्वारा आक्रमण ।
यूरोपवासियों का आगमन ।
क्षेत्र सम्बंधी
जमींदारों (वंशानुगत भूमालिकों) के प्रभाव तथा शक्तियों में वृद्धि ।
जागीरदारी की शुरुआत (कुलीनों को जमीन देना, इससे आय में कमी होती चली गयी ) ।
आर्थिक तथा प्रशासनिक समस्याएँ (युद्ध के खर्चे, खालसा जमीनों में कमी, राजाओं का विलासिता पूर्ण जीवन, तकनीकी प्रगति का अभाव) ।
क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं तथा राज्यों का उदय ।
बाह्य कारण
बाह्य कारण
उत्तर-पश्चिम से आक्रमण के खिलाफ आंतरिक शक्ति तथा एकता का अभाव।
क्षेत्रीय राज्यों का उदय
क्षेत्रीय राज्यों के उदय के निम्न कारण थे-
(i) केन्द्रीय सत्ता का अभाव। (ii) शासक वर्ग का नैतिक पतन। (iii) कुछ क्षेत्रीय शासकों का योग्य नेतृत्व । जैसे- हैदरअली, टीपू सुल्तान, रंजीत सिंह, महादजी सिंधिया आदि ।
18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के ध्वंशावशेषों पर नवीन राज्यों का सृजन हुआ।
जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं और अराजकता के बल पर नव स्वतंत्र राज्य स्थापित किये। वे राज्य थे- अवध, मैसूर, पंजाब, हैदराबाद, रूहेलखण्ड, राजपूत, मराठे, कर्नाटक आदि । (अवध एवं हैदराबाद को उत्तराधिकार वाले राज्य कहा जाता है)
इसे तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
उत्तराधिकारी राज्य
ऐसे मुगल प्रांत जो स्वतंत्र राज्यों में बदल गए तथा जिनकी स्वतंत्र तथा स्वायत्त राजनीति थी।
उदाहरण
अवध ( सहादत खान / बुरहान -उल-मुल्क), हैदराबाद (किलिच खान / निजाम-उल-मुल्क), बंगाल (मुर्शिद कुली खान)
स्वतंत्र राज्य
ये राज्य मुगल नियंत्रण वाले प्रांतों की अस्थिरता के कारण बने ।
उदाहरण
राजपूत, मैसूर, केरल (मार्तण्ड वर्मा के द्वारा स्थापित ) ।
नए राज्य
मुगल शासन के अंतर्गत बागियों द्वारा स्थापित राज्य ।
उदाहरण
जाट ( भरतपुर में चूड़ामन तथा बदन सिंह के द्वारा जाट राज्य की स्थापना), सिख, मराठा, रोहिलखण्ड (अली मोहम्मद खान के द्वारा स्थापित ), कुमाऊं तथा गंगा के बीच की हिमालय की तलछटी वाले क्षेत्र शामिल और फर्रुखाबाद (मोहम्मद खान बंगाश, दिल्ली के पूर्व में ) ।
सामाजिक आर्थिक परिस्थितियाँ
कृषि
कृषि तकनीकी रूप से पिछड़ी हुई थी।
किसानों की दयनीय स्थिति ।
व्यापार तथा उद्योग
निर्यातः सूती वस्त्र, कच्चे रेशम और रेशमी कपड़े, नील, शोरा, अफीम, चावल, गेहूँ, चीनी, काली मिर्च तथा अन्य मसालें, कीमती पत्थर तथा दवाइयाँ / औषधियाँ ।
दास प्रथाः इन्हें घरेलू नौकर / सेवक के बजाय वंशानुगत नौकर माना जाता था।
कला, वास्तु कला एवं संस्कृति
आसफ-उद-दौला ने लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा (1784 ई.) का निर्माण करवाया।
सवाई जयसिह ने पाँच वेधशालाओं (दिल्ली, उज्जैन, जयपुर, बनारस, मथुरा) का निर्माण, जिज मुहम्मद ने खगोलीय अध्ययनों के लिए शाही समय सारणी बनवायी ।
भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध पद्मनाभपुरम महल।
कला की राजपूताना तथा कांगड़ा शैली का विकास।
उर्दू के मीर, सौदा, नाज़िर और मिर्जा गालिब आदि प्रसिद्ध कवि/शायर थे।
तमिलः तयुमनावर के द्वारा सितार वादन ।
मलयालमः कंचन नाम्बियार द्वारा समृद्ध ।
पंजाबी: वारिस शाह द्वारा हीर रांझा ।
सिंधी: अब्दुल लतीफ के द्वारा रिसालों (कविताओं का संग्रह ) ।
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